SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 4
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि इश्यो होय तूं जाण रे, सर्व जग जंतु सम गिणे, गिणे तृण मणि भाव रे, मुक्ति संसार बेहु सम गिणे, मुणे भव - जलनिधि नांव रे" " समभाव ही चारित्र है, ऐसे समत्वभाव रूप निर्मल चारित्र का पालन करनेवाले मुनि संसार उदधि में नौका के समान है। श्रमण से अभिप्राय आत्मज्ञानी श्रमण से है: शेष उनकी दृष्टि में द्रव्यलिंगी है आतमज्ञानी श्रमण कहावै, तो द्रव्यलिंगी रे ।। कविवर बनारसीदासजी की दृष्टि में संत-स्तुति अध्यात्मयोगी कविवर बनारसीदासजी महाकवि तुलसीदासजी के समकालीन कवि थे। उनका समय वि.सं. १६४३-१६६३ तक का है। उनकी रचना "अर्द्धकथानक " हिंदी का सर्वप्रथम आत्मचरित ग्रंथ है । वैसे ही कवि की सर्वोत्कृष्ट रचना “समयसार नाटक " अध्यात्म जिज्ञासुओं के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण है । संत स्वभाव का और संत के लक्षण वर्णन करनेवाला उनका सवैया इकतीसा दृष्टव्य है - कीच सौ कनक जाकै, नीच सौ नरेश पद, मीच सी मिताई गरुवाई जाकै गारसी । जहर सी जोग जाति, कहर सी करामाती, हहर सी हौस, पुद्गल छवि छारसी । जाल सौ जग विलास, भाल सौ भुवनवास, १. आनंदघन ग्रंथावली, शांतिनाथ जिन स्तवन २. वही, वासुपूज्य जिन स्तवन ३. समयसार नाटक, बंध द्वार १६ वाँ पद ४. पंच महाव्रत पाले..... मूलगुण धारी जती जैन को । । समयसार, चतुर्दश गुणस्थानाधिकार । । ८० । । १४८ Jain Education International काल सौ कुटुम्ब काज, लोकलाज लारसी । सीठ सौ सुजसु जानै, बीठ सौ बखत मानै, ऐसी जाकी रीत ताहि वंदत बनारसी ।। ३ भावार्थ यह है कि संत सांसारिक अभ्युदय एक आपत्ति ही समझते है । महाव्रत, समिति - गुप्ति का पालन करते हुए जो इंद्रिय विषयों से विरक्त होते है, वे ही सच्चे संत है। कवि ने साधु के अट्ठाइस मूल गुणों का भी विस्तृत विवेचन किया है। कवि भूधरदासजी की गुरु-स्तुति भूधरदासजी ने दो गुरु-स्तुतियों की रचना की थी । वे दोनों ही “ जिनवाणी संग्रह " में प्रकाशित है। जैनों में देव, शास्त्र और गुरु की पूजा प्राचीनकाल से चली आ रही है । गुरु के बिना न तो भक्ति की प्रेरणा मिलती है और न ज्ञान ही प्राप्त होता है। गुरु के अनुग्रह के विना कर्म शृंखलाएँ कट नहीं सकती । गुरु राजवैद्य की तरह भ्रम रूपी रोग को तुरन्त ठीक कर देता है । " जिनके अनुग्रह बिना कभी, नहीं कटे कर्म जंजीर । वे साधु मेरे उर बसहु, मम हरहु पातक पीर । । " गुरु केवल “परोपदेशे पाण्डित्यं” वाला नहीं होता, अपितु वह स्वयं भी इस संसार से तिरता है और दूसरों को भी तारता है । भूधरदासजी ऐसे गुरु को अपने मन में स्थापित कर स्वयं को गौरवान्वित मानते हैं । ऐसे गुरुओं For Private & Personal Use Only प्राचीन जैन हिंदी साहित्य में संत स्तुति www.jainelibrary.org
SR No.211426
Book TitlePrachin Jain Hindi Sahitya me Sant Stuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayshreeji Sadhvi
PublisherZ_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf
Publication Year1999
Total Pages9
LanguageHindi
ClassificationArticle & Stotra Stavan
File Size668 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy