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________________ 356 मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ (3) उपभोग-परिभोग परिमाण विशेष प्रकार के पेय, द्रव्य, वनस्पति, अन्नादि, वस्त्र, आभूषण, शयनासन, वाहन आदि का त्याग व निश्चित सीमा का निर्धारण करना / (4) अतिथि संविभाग साधु-साध्वियों को श्रद्धापूर्वक आहार, पानी, वस्त्र औषधि का दान करना, योग्य पात्रों की यथोचित सहायता करना आदि / इसके द्वारा मानव अपने को सुशिक्षित व सभ्य बना सकता है। संलेखना महान् संकट, दुर्भिक्ष, असाध्य रोग, वृद्धावस्था में जब मानव व श्रावक को यह प्रतीत होता है कि अब वह इस विपत्ति से बच नहीं सकता तो कष्टमय व्याकुलतापूर्वक देह त्याग करने की अपेक्षा यही श्रेयष्कर है कि वह अपना आहार-पान घटाता जाये जिससे चित्त में क्लेश, व्याकुलता उत्पन्न न हो और शान्त भाव से वह प्राणत्याग करे इसे ही संलेखना कहाँ गया है। आत्मघात की संज्ञा इसे प्रदान नहीं कर सकते। क्योंकि आत्मघात तीव्र राग द्वेष या कलहपूर्ण वृत्ति का परिणाम है। इसमें मानव प्राणघात, शस्त्र, विष के प्रयोग आदि घातक क्रियाओं द्वारा करता है। श्रावक को ग्यारह प्रतिमाएं उपरोक्त समस्त गृहस्थधर्म के व्रतों पर ध्यान देने से स्पष्ट दिखाई देगा कि पूर्णरूपेण श्रावकधर्म ग्रहस्थों या व्यक्तियों द्वारा पालन संभव नहीं है इसलिए गृहस्थ की परिस्थितियों और सुविधाओं एवम् शारीरिक-मानसिक प्रवृत्तियों के आधार पर श्रावकधर्म के साधना के स्वरूप की 11 श्रेणियां नियत की गई हैं। (1) प्रथम प्रतिमा : सम्यक् दृष्टि-भले ही परिस्थितिवश व्यक्ति अहिंसादिक व्रतों का पालन न कर सके, परन्तु जब उसकी दृष्टि सुधर चुकी होती है तो वह भव्यसिद्ध हो जाता है और कमी न कभी वह चारित्रिक शुद्धि प्राप्त कर मोक्ष का अधिकारी बन सकता है। (2) दूसरी प्रतिमा व्रत-पांच अणब्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों का निरतिचार रूप से पालन करने का अभ्यास होना आवश्यक है। (3) तीसरी प्रतिमा : सामायिक-इसका स्वरूप शिक्षाव्रतों में विस्तृत रूप से वर्णित है। (4) पोषधोपवास प्रतिमा-इसमें गृहस्थ उपवास विधि का पालन करने में समर्थ होता है जिसका स्वरूप ऊपर वर्णित है। (5) सचित्त त्याग-इसमें श्रावक को स्थावर जीवों की हिंसा वृत्ति को विशेष रूप से नियन्त्रित करना व शाक कन्दमूल आदि, वनस्पति और अप्रासुक जल का परित्याग करना आवश्यक होता है। (6) रात्रि-भोजन का त्याग-इसमें रात्रि भोजन का त्याग करना; क्योंकि रात्रि भोजन में कीट पतंगा आदि अनेक सूक्ष्म जन्तु आहार के साथ खाने या उनके द्वारा आहार अशुद्ध होने का भय बना रहता है। उनसे अनेकों रोग फैलने का भय रहता है। (7) ब्रह्मचर्य-इसमें श्रावक को स्व-स्त्री संसर्ग भी त्याग देना व मनोविकार उत्पन्न करने वाले कथा साहित्य पढ़ना-सुनना और तत् सम्बन्धी वार्तालाप का भी परित्याग करना आवश्यक होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211408
Book TitlePrakrit Bhasha ke Dhwani Parivartano ki Bhasha Viagyanik Vyakhya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Kumar Jain
PublisherZ_Munidway_Abhinandan_Granth_012006.pdf
Publication Year
Total Pages7
LanguageHindi
ClassificationArticle & Literature
File Size789 KB
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