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________________ आदर्श गृहस्थ बनाम श्रावकधर्म 355 को कहा है। नियत सीमा से अधिक धन-धान्य का संचय न करना और अधिक होने पर उसे दवाइयां, वस्त्र, अन्न आदि दान करना, विद्यालयों की स्थापना, जीव रक्षा आदि हितकारी कार्य करना चाहिए। अतिचार भूमि, सोना, चाँदी, बर्तन, अधिक धनधान्य का संग्रह ये इसके प्रमुख अतिचार हैं। इनको ध्यान में रखते हुए प्रत्येक गृहस्थ पालन करे। विश्व की बड़ी से बड़ी समस्या करोड़ों लोगों के मने रोटी का सवाल है। दूसरी ओर धन एवं साम्राज्यवाद अमर्यादित इच्छाओं की विषमता के कारण आज सारा विश्व विषम परिस्थितियों से गुजर रहा है। इन उत्पन्न समस्याओं का निराकरण भगवान महावीर के अपरिग्रहवाद के पालन में है। यही उसे सच्ची शाश्वत शांति प्रदान कर सकता है। इस प्रकार भगवान महावीर द्वारा गृहस्थ धर्म में जिन व्रतों का उल्लेख प्रस्तुत किया है उनको जीवन में अनुसरण योग्य बनाने के लिए उन भावनाओं का विधान बताया है जिनके द्वारा पापों के प्रति अरुचि और सदाचार के प्रति रुचि उत्पन्न हो / जो पाप है उनके द्वारा जीवन में अनेक प्रकार के सुखों के बजाय दुखों का ही निर्माण होता है। प्रत्येक जीवित प्राणी के प्रति मंत्री भाव, गुणी व्यक्तियों के प्रति श्रद्धा प्रेम, दुखी दोन प्राणी के प्रति कारुण्य प्रतिद्वन्द्वियों के प्रति राग द्वेष व ईर्ष्या भावना रहित माध्यस्थ भाव हो। इन समस्त भावों के प्रति मन को सदैव जागरूक रखना चाहिए जिससे तीव्र अनिष्टकारी भावना जाग्रत न हो। कृत-कारित-अनुमोदित तीनों रूपों से परित्याग करना / इस प्रकार नैतिक सदाचार द्वारा जीवन को शुद्ध और समाज को सुसंस्कृत बनाने का पूर्ण प्रयास किया गया है। तीन गुणवत इन 5 मूल व्रतों के अलावा कुछ ऐसे नियम भी गृहस्थ या श्रावक या मानव के बताएँ है जिनके द्वारा मानव को तृष्णा व संग्रह वृत्ति पर नियन्त्रण हो, इंद्रियलिप्सा का दमन हो और दानशीलता की भावना हो / चारों दिशाओं में गमन मार्ग आयात-निर्यात की सीमा बाँध लेना चाहिए। अतप मर्यादा सहित जल थल में दूरी सीमाओं के अनुसार निर्धारण कर व्यापार आदि करना। हिंसक चिन्तवन अस्त्र शस्त्र और अनर्थकारी वस्तुओं का दूसरों को दान न देना जिसका वह स्वयं उपयोग नहीं करना चाहता है। इनका आदर्श गृहस्थ को परित्याग करना आवश्यक है। इनके द्वारा मूल व्रतों के गुणों में वृद्धि होती है अतः इन्हें गुणव्रत कहा गया है। चार शिक्षा व्रत (1) सामायिक ग्रहस्थ को इसकी आवश्यकता पर जोर दिया है। सामायिक यानि समता भाव यह मन की साम्य अवस्था है जिसके द्वारा हिंसादि समस्त अनाचारी प्रवत्तियों का दमन हो। भगवान महावीर ने श्रावक को अधिक समय शांत और शुद्ध वातावरण में मन को सांसारिकता से निवृत कर शुद्ध ध्यान धर्म चितवन में लगाने को कहा है। (2) पोषधोपवास गृहस्थ या श्रावक इसमें अपने गृह, व्यापार, खाना-पीना छोड़कर अपना दिन का पूर्ण समय धार्मिक क्रियाएँ व स्वाध्याय, गुरुदर्शन, वंदन में पूर्ण करे जिससे उसे भूख-प्यास की वेदना पर विजय प्राप्त करने की शक्ति प्राप्त हो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211408
Book TitlePrakrit Bhasha ke Dhwani Parivartano ki Bhasha Viagyanik Vyakhya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Kumar Jain
PublisherZ_Munidway_Abhinandan_Granth_012006.pdf
Publication Year
Total Pages7
LanguageHindi
ClassificationArticle & Literature
File Size789 KB
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