________________ आदर्श गृहस्थ बनाम श्रावकधर्म 357 (8) आरम्भ त्याग-श्रावक की सांसारिक आसक्ति घटना आवश्यक है। वह घरगृहस्थी सम्बन्धी भार भी जैसे काम, धन्धे व व्यापार सम्बन्धी भार भी पुत्र आदि को दे देता है। (8) परिग्रह त्याग-यहाँ तक आते-आते श्रावक ऐसे उत्कर्ष को पहुँच जाता है कि (10) अनुमति प्रदान न करना-- इसमें श्रावक अपने पुत्र-पुत्री आदि को काम-धन्धों या अन्य किसी प्रकार की अनुमति प्रदान नहीं करता है / (11) उद्दिष्ट त्याग-यहाँ पर श्रावकधर्म का पालन करने वाला श्रावक अपनी चरम सीमा पर पहुंच जाता है। इसमें श्रावक अपने निमित्त बना भोजन ग्रहण नहीं करता और भिक्षा वृत्ति अंगीकार कर लेता है / सांसारिकता में रहकर ही या कभी-कभी सांसारिकता को त्याग कर मुनिधर्म भी अंगीकार कर लेता है। उपरोक्त आदर्श गृहस्थ बनाम श्रावकधर्म का स्पष्ट एवम् सूक्ष्मतम विवेचन से स्पष्ट होता है कि इन विधान सूत्रों के आधार पर संसार का कोई भी प्राणी अर्थात् मानव अपने जीवन का सुरुचि पूर्ण तरीके से व्यवस्थित कर सकता है एवम् उसे जीवन का सर्वोच्च वैभव प्राप्त हो सकता है। जैन परिभाषा के अनुसार उसे हम आदर्श श्रावक के रूप में सम्बोधित कर सकते हैं, साथ ही सामान्य भाषा में उसे हम आदर्श गृहस्थ के सर्वोच्च सम्मान शिखर पर विमषित कर सकते हैं। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org