________________ प्राकृत बोलियाँ की सार्थकता / 253 उल्लेख किया है, महाराष्ट्री का उल्लेख यहाँ नहीं मिलता। अश्वघोष, भास, शूद्रक, कालिदास, विशाखदत्त ग्रादि संस्कृत-नाटककारों की रचनामों में शौरसेनी के प्रयोग पाये जाते हैं। वररुचि ने प्राकृत-प्रकाश में संस्कृत को शौरसेनी का आधार माना है। संस्कृत द्वारा प्रभावित होने के कारण शौरसेनी में प्राचीन कृत्रिम रूपों की बहलता पाई जाती है। ईसा की छठी जाने वाली महाराष्ट्री को उत्तम प्राकृत कहा है, जो सूक्ति रूपी रत्नों का सागर है / ध्वनिपरिवर्तन की दृष्टि से यह प्राकृत अत्यन्त समृद्ध मानो गई है।' हाल की गाहासत्तसई की रचना इसी प्राकृत में की गई है। इस प्राकृत का सर्वाधिक प्रयोग प्रगीतों में किया गया है। आगे चलकर महाराष्ट्री इतनी लोकप्रिय हुई कि इसे सामान्य प्राकृत के नाम से कहा जाने लगा। वररुचि ने अपने प्राकृतप्रकाश में सामान्य प्राकृत महाराष्ट्री का ही विवेचन किया है। गाहासत्तसई और गउडवहो जैसी रचनायें महाराष्ट्री प्राकृत में लिखी गई हैं, फिर भी इन रचनामों के कर्ताओं ने अपनी भाषा को प्राकृत नाम ही दिया है। संस्कृत नाटकों में महाराष्ट्री के प्रयोग देखने में प्राते हैं। कालान्तर में जब महाराष्ट्री और शौरसेनी ने साहित्यिक रूप लिया तो इन बोलियों के शाश्वत निर्धारित नियमों के अभाव में, एक प्राकृत के नियम दूसरी प्राकृत के लिये लागू किये जाने लगे / पुरुषोत्तम ने अपने प्राकृतानुशासन (11.1) में महाराष्ट्री -28 शिवाजी पार्क बम्बई-२८ 00 1. विस्तार के लिये देखिये, जगदीशचन्द्र जैन, वही, पृ० 26-43 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org