Book Title: Prakrit Boliyo ki Sarthakta
Author(s): Jagdishchandra Jain
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf

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________________ प्राकृत बोलियों की सार्थकता - डॉ. जगदीशचन्द्र जैन गरुडपुराण (पूर्व खण्ड, ९८.१७) में कहा गया है। लोकायतं कुतकं च प्राकृतं म्लेच्छभाषितम् । न श्रोतव्यं द्विजेनंतत् अधो नथति तद् द्विजम् ॥ लोकायत (= चार्वाक), कुतर्क और म्लेच्छों द्वारा बोली जाने वाली प्राकृत ब्राह्मण को सुनना ठीक नहीं-ये उसे अधोगति को ले जाते हैं। इस पर से कुछ लोग प्राकृत को म्लेच्छ-भाषित मानकर उसकी गर्हणा करते हैं । लेकिन देखा जाय तो कोई भी भाषा प्रशंसनीय अथवा गर्हणीय नहीं है। भाषाविज्ञान में, भाषाओं के विकासक्रम में, सबका अपना-अपना स्थान निर्धारित है। भाषाविज्ञान की दृष्टि से भारतीय आर्यभाषाओं को तीन भागों में विभक्त किया गया है : पहला युग प्राचीन भारतीय आर्यभाषाओं का है जो ईसा पूर्व २००० से लेकर ईसा पूर्व ६०० या ५०० तक चलता है। दूसरा युग मध्यकालीन आर्यभाषाओं का है जो ईसा पूर्व छठी या पांचवीं शताब्दी से ईसा की १० वीं या ११ वीं शताब्दी तक चलता है; तीसरा युग अाधुनिक प्रार्यभाषाओं का है, जो ईसा की १० वीं या ११ वीं शताब्दी से लेकर आधुनिक भारतीय आर्यभाषायों तक चलता है। संस्कृत का आधिपत्य कहना न होगा कि जब से भारतीय भाषाशास्त्र के असाधारण मनोषी पाणिनि (ईसा पूर्व ५वीं शताब्दी) ने अपनी अष्टाध्यायी के सूत्रों में संस्कृत व्याकरण को समेट कर, भाषा को सुसंस्कृत बनाया तभी से संस्कृत को भारतीय साहित्य में गौरव का स्थान प्राप्त हमा। कालक्रम से इस भाषा में दर्शन, न्याय, काव्य, व्याकरण, कोश, ज्योतिष, वैद्यक आदि सम्बन्धी साहित्य का निर्माण होने लगा। कालान्तर में संस्कृत इतनी लोकप्रिय हुई कि इसके समक्ष अन्य भाषायें प्रभावहीन प्रतीत होने लगीं। उदाहरण के लिए, ईसवी सन् ९०० के अासपास, नृत्य पर आधारित केवल प्राकृत में लिखे जाने वाले सट्टकों की रचना हुई, किन्तु संस्कृत के प्रभाव के कारण अथवा संस्कृत में रूपान्तरित होने के कारण उनका अस्तित्व ही शेष न रहा । यायावरवंशीय सुप्रप्रिद्ध राजशेखर ने कर्पूरमंजरी आदि सट्टकों का प्रणयन कर यश का सम्पादन किया। किन्तु उलेखनीय है कि ईसा की नौंवीं शताब्दी के आसपास संस्कृत का प्रभाव इतना बढ़ गया था कि राजशेखर को अपने बालरामायण नाटक के प्राकृत अंशों को संस्कृत छाया द्वारा समझाने की चेष्टा करनी पड़ी। उल्लेखनीय है कि वर्तमान में भी संस्कृत नाटकों में प्राकृत अंशों की संस्कृत छाया छपी रहती है और संस्कृत के अध्यापक प्रायः उसीके आधार से विद्यार्थियों को प्राकृत का ज्ञान कराते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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