Book Title: Prakrit Boliyo ki Sarthakta Author(s): Jagdishchandra Jain Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf View full book textPage 6
________________ प्राकृत बोलियों की सार्थकता | २५१ 'क्वचित', 'वा' आदि शब्दों के प्रयोग द्वारा प्राकृत बोलियों को अनेकरूपता का ही समर्थन किया गया।' वररुचि (ईसा की लगभग छठी शताब्दी) आदि पूर्वी संप्रदाय के वैयाकरण कितनी ही ऐसी बोलियों और उन बोलियों की चर्चा करते हैं जिनका उल्लेख हेमचन्द्र (१०८८-११७२ ई.) आदि पश्चिमी संप्रदायों की रचनाओं में नहीं मिलता । वररुचि महाराष्ट्री (प्राकृत), पैशाची, मागधी और शौरसेनी की चर्चा करते हैं जब कि हेमचन्द्र इसमें चूलिका पैशाची और अपभ्रंश जोड़ देते हैं। इसके अतिरिक्ति वे पार्षप्राकृत या अर्धमागधी का भी उल्लेख करते हैं किन्तु अपने प्राकृत-व्याकरण ( १.३; सिद्धहेमशब्दानुशासन का आठवाँ अध्याय ) में उन्होंने कहा कि उनके व्याकरण के समस्त नियम आर्ष प्राकत के लिए लागू नहीं होते। त्रिविक्रम अपने प्राकृत शब्दानुशासन में, सिंहराज अपने प्राकृत रूपावतार में, लक्ष्मीधर षड्भाषाचन्द्रिका में और अप्पय दीक्षित प्राकृतमणिदीप में हेमचन्द्र का ही अनुकरण करते हैं; अन्तर इतना ही है कि वे पार्ष अथवा अर्धमागधी को शामिल नहीं करते । प्राकृत-प्रकाश की लोकप्रियता वररुचि का प्राकृतप्रकाश उपलब्ध व्याकरणों में सर्वप्राचीन जान पड़ता है। इस पर भामह ने मनोरमा, कात्यायन ने प्राकतमंजरी ( पद्यबद्ध टीका), वसंतराज ने प्राकतसंजीवनी,२ सदानन्द ने सुबोधिनी और नारायण विद्याविनोद ने प्राकृतपादटीकाओं की रचना की है। केसवहो और उसाणिरुद्ध नामक प्राकृत काव्यों के रचयिता मलाबार के निवासी रामपाणिवाद ने भी इस पर प्राकतवत्ति नामक टीका लिखी है। इसके अतिरिक्त, जैसे भट्टि कवि ने अष्टाध्यायी के सूत्रों का स्पष्टीकरण करने हेतु भट्टिकाव्य (रावणवध), और आचार्य हेमचन्द्र ने सिद्धहेमव्याकरण के सूत्रों को समझाने के लिए प्राकृत द्वयाश्रय काव्य की रचना की, उसी प्रकार केरल निवासी कृष्णलीलाशुक ने वररुचिकृत प्राकृतप्रकाश के नियमों का ज्ञान कराने के लिए सिरिचिंधकव्व की रचना की। इससे इस व्याकरण की लोकप्रियता का सहज ही अनुमान किया जा सकता है। प्राकृतप्रकाश के १२ परिच्छेदों में से ९ परिच्छेदों में सामान्य प्राकृत (= महाराष्ट्री) को विवेचन है, १०वें में पैशाची, ११ वें में मागधी और १२ वें में शौरसेनी के लक्षण बताये गये हैं। कात्यायन की प्राकृतमंजरी, वसंतराज की प्राकृतसंजीवनी और सदानन्दकृत सुबोधिनी टीकायें प्राकृतप्रकाश के केवल प्रारंभ के ९ परिच्छेदों पर हैं, इससे जान पड़ता है कि वररुचि ने केवल सामान्य प्राकृत १. संधिप्रयोगों की बहुलता के सम्बन्ध में वररुचिकृत प्राकृतप्रकाश पर संजीवनी के टीकाकार वसन्तराज ने निम्न श्लोक उद्धत किया है क्वचित् प्रवृत्तिः क्वचिदप्रवृत्तिः क्चचिद् विभाषा क्वचिदन्यदेव । विधेविधानं बहधा समीक्ष्य चतुर्विधं बाहुलकं वदन्ति । -प्राचार्य श्री बलदेव उपाध्याय, प्राकृतप्रकाश, १९७२, ४.१, पृ. ७३ २. यह टीका सर्वप्रथम आचार्य श्री बलदेव उपाध्याय द्वारा सरस्वती भवन सीरीज, बनारस से दो खण्डों में १९२७ में प्रकाशित; द्वितीय परिवधित संस्करण १९७२ में प्रकाशित । દીનવી w Jain Education International For Private & Personal Use Only ww.janelibrary.orgPage Navigation
1 ... 4 5 6 7 8