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चतुर्थ खण्ड / २५०
इस सम्बन्ध में विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि आजकल उपलब्ध प्राकृत भाषा के कितने ही व्याकरण सम्बन्धी रूप एवं शब्द पाणिनि की संस्कृत से सम्बद्ध न होकर वेदों की भाषा के अनुरूप हैं। उदाहरण के लिये : (क) प्राकृत और वैदिक भाषाओं में अकारान्त प्रथमा विभक्ति के एकवचन में विसर्ग
के स्थान पर 'प्रो'। (ख) अकारान्त शब्दों के तृतीया विभक्ति के बहुवचन में 'भिस्' (ग) अन्तिम व्यंजन का लोप (घ) चतुर्थी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी का प्रयोग (ङ) पूर्वकालिक क्रिया के साधारण प्रत्यय तण (प्राकृत में ; वैदिक भाषा में त्वन)
का प्रयोग (च) स्पर्शवर्गीय चतुर्थ अक्षर के स्थान पर महाप्राणीय 'ह' का प्रयोगः धि = हि;
. गध- ग्रह, ग्रभ् = ग्रह; घ्नन्ति = हन्ति ; अर्ध-अर्ह । (छ) स्वर के बीच में आने वाले 5 काळ में और ढ़ का लह में परिवर्तन (ज) प्राकृत में प्रयुक्त कितने ही शब्दों का संस्कृत में प्रयोग
विक्षिप्त (प्राकृत विच्छित्ति से), गोपेन्द्र (गोविन्द), मसृण (मसिण), द्युत् (ज्यु), विकृत (विकट),क्षुद्र (क्षुल्ल), श्रिथिर (शिथिर), विदूषक (विउस अथवा विउसन), आर्यिका (प्रज्जुका), मार्ष (मारिस), भद्रं ते (भदन्त) आदि ।'
ज्ञातव्य है कि सुप्रसिद्ध भाषाविज्ञान के वेत्ता जॉर्ज ग्रियर्सन ने प्राकृत की तीन अवस्थानों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित किया है। उनके अनुसार, (क) वैदिक भाषा और उसकी उत्तराधिकारी संस्कृत प्रमुख प्राकृत के साहित्यिक रूप हैं, (ख) गौण प्राकृत में पालि, वैयाकरणों द्वारा उल्लिखित प्राकृतों, संस्कृत नाटकों की प्राकृतों, सामान्यतया साहित्य की प्राकृतों और वैयाकरणों के अपभ्रशों का समावेश होता है, (ग) प्राकृत की तीसरी अवस्था में आधुनिक प्रार्यभाषामों का अन्तर्भाव होता है। प्राकृत बोलियों की अनेकरूपता
कहा जा चुका है कि भिन्न-भिन्न प्रदेशों में भिन्न-भिन्न रूप से बोली जाने वाली प्राकृत में, संस्कृत की भांति एकरूपता न आ सकी। इसीलिए पाणिनि की अष्टाध्यायी के स्तर पर उसका सर्वमान्य सर्वांगीण व्याकरण तैयार न किया जा सका। पूर्वीय और पश्चिमी संप्रदायों के वैयाकरणों ने अपने-अपने प्राकृतव्याकरणों की रचना की। इन व्याकरणों में य-श्रुति, ण-प्रयोग, अनुनासिक प्रयोग आदि को लेकर परस्पर विरोधी मतों का विधान किया गया।' इसके अतिरिक्ति व्याकरण सम्बन्धी अनेक नियमों के प्रतिपादन के प्रसंग में 'प्रायः', 'बहल',
१. देखिये पिशल, कम्परेटिव ग्रामर ऑव द प्राकृत लैन्गवेजेज (सुभद्र झा), ६, पृ. ४-५;
मार्कण्डेय, प्राकृतसर्वस्व, के. सी. प्राचार्य, भूमिका, पृ. ४६; जगदीशचन्द्र जैन, प्राकृत
साहित्य का इतिहास, संशोधित संस्करण, १९८५, पृ. ५ २. देखिये, जगदीशचन्द्र जैन, वही. पृ. १८-१९
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