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चतुर्थ खण्ड / २४८
गया है। ऐसी हालत में प्राकृत भाषाओं के तुलनात्मक अध्ययन करने का प्राधुनिकतम कार्य अभी बाकी है। इस सूची में लुडविग पाल्सडोर्फ का नाम जोड़ देना अनुचित न होगा। उन्होंने संघदासगणि वाचक द्वारा प्राचीन महाराष्ट्री प्राकृत में रचित वसुदेव हिंडि का भाषा शास्त्रीय अध्ययन करने के पश्चात् 'द वसुदेव हिडि : ए स्पेसीमेन ऑव आर्केक जैन महाराष्ट्री' नामक एक महत्त्वपूर्ण लेख 'बुलेटिन ऑव द स्कूल प्रॉव पोरिटियेल स्टडीज' (जिल्द ८, १९३६) में प्रकाशित किया। इस विद्वत्तापूर्ण लेख में पाल्सडोर्फ ने वसुदेव हिंडि में प्रयुक्त भाषा के विलक्षण प्रयोगों को प्राकृतभाषा के विकास के प्राचीनतम स्तर से संबंधित बताया है।'
प्राकृत बोलियों की प्रादेशिकता
संघदास गणि क्षमाश्रमणकृत बृहत्कल्पभाष्य में जनपदपरीक्षा-प्रकरण में बताया गया है कि पदचर्या द्वारा देश-देश में विहार करने वाले जैन श्रमणों को चाहिये कि वे विभिन्न देशों में बोली जाने वाली बोलियों में कुशलता प्राप्त करें, ऐसा करने पर ही वे जन सामान्य को अपने धर्मोपदेश द्वारा लाभान्वित कर सकने में समर्थ हो सकते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि महावीर और बुद्ध ने भी ईसा पूर्व छठी शताब्दी में पंडितों द्वारा मान्य शिष्ट संस्कृत भाषा में अपना धर्मोपदेश न देकर, जन-साधारण द्वारा ग्राह्य प्राकृत बोली को ही मान्य किया था। दोनों ही की धार्मिक एवं सामाजिक प्रवृत्तियों का केन्द्र मगध था, अतएव दोनों ने ही मगध में बोली जाने वाली मागधी को अपने-अपने धर्मोपदेश के लिये उपयुक्त स्वीकार किया।
आर्य लोग वेदग्रन्थों को पवित्र निधि मानते थे, अतएव वैदिक ऋचाओं का ठीक-ठीक उच्चारण करना परम आवश्यक था। इन ऋचारों का यथावस्थित उच्चारण न किये जाने पर-अक्षर, मात्रा, पद और स्वर की कमी रह जाने पर-देवतागणों के अप्रसन्न हो जाने से मन्त्रोच्चारणकर्ता की मन:कामना के अपूर्ण रह जाने का अंदेशा बना रहता था । अतएव वेदसंहिता की मौलिकता की रक्षा के लिये शिक्षा, छन्द, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष और कल्प नामक वेदांगों की रचना की गई, शिक्षा और व्याकरण में उच्चारण की शुद्धता पर जोर दिया गया। उस काल में बड़े-बड़े ऋषियों के मुख से भी मंत्रोच्चारण के अशुद्ध प्रयोग सुनाई पड़ जाते थे। ऐसी हालत में प्रातिशाख्य और व्याकरण के अध्ययन को प्रमुख माना गया। इन्हीं परिस्थितियों में जैसा कहा चुका है कि पाणिनि ने व्याकरण के सूत्रों का निर्माण कर भाषाविज्ञान के क्षेत्र में असाधारण कार्य सम्पन्न किया। उन्होंने अनगढ़ वैदिक भाषा को परिमाजित एवं संशोधित करके उसे सुव्यवस्थित रूप दिया, और संस्कारित होने के कारण यह भाषा संस्कृत नाम से अभिहित की गई।
प्राकृत के संबंध में यह बात नहीं थी । प्राकृत का व्याकरणसम्मत अर्थ होता है प्रकृतिजन्य, अर्थात् स्वभावसिद्ध, जनसामान्य द्वारा व्यवहार में लाई जाने वाली । ईसा की ११वीं शताब्दी के जैन विद्वान नमि साधु ने रुद्रट के काव्यालंकार (२.१२) पर टीका करते हुए लिखा है
१. वसुदेव हिंडि के अध्ययन के लिए देखिये जगदीशचन्द्र जैन 'द वासुदेवहिंडि-ऐन ऑथेण्टिक
जैन वर्जन प्रॉव द बृहत्कथा', १९७७
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