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________________ । ११ । कता के प्रशस्त चिन्ह पाये। लोक-कल्याण की भावना से तपस्वी श्रीछननसागरजी म० ने अपने पूज्य गणाधीश्वरजी प्रेरित हो गुरु-महाराज ने श्रीहनुमन्तसिंह जी को उपदेश की इस आज्ञा को शिरोधार्य करके, उनको निश्चिन्त बना दिया कि तुम्हारे ५ लड़के हैं। उनमें से इस मध्यम कुमार दिया। गणि श्रीभगवान्सागरजी महाराज आत्मरमण को आप हमें दे दो। क्योंकि यह कुमार बड़ा भारी साधु करते हुए दिव्य लोक को सिधार गये तब संघ में एक दम होगा, और अपने उपदेशों से जैनशासन की महती सेवा शोक छा गया। परंतु गुरुदेव के प्रतिनिधि स्वरूप कुमार करेगा। इसको देने से तुमको भी अपूर्व धर्म-लाभ होगा। हरिसिंह के दीक्षा-महोत्सव ने शोक को मिटा कर अपूर्व गुरुमहाराज की इस पुण्य प्रेरणा से प्रेरित हो वीरहृदयो आनन्द को फैला दिया। श्री संघ के सामने बड़े भारी हनुमन्तसिंहजी ने बड़ो वीरता के साथ अपने प्राण प्यारे समारोह के साथ पू० त० श्री छगनसागरजी महाराज ने पुत्र को धर्म के नाम पर श्रीगुरुमहाराज को भेंट कर दिया। कुमार हरिसिंह को उसी पूर्व निश्चित सुमुहुर्त में भगवती गुरुदेव और कुमार के इस सफल संयोग से 'सोने में सुगन्ध दोक्षा प्रदान कर पूज्य गणाधीश्वर श्री भगवानसागरजी को कहावत चरितार्थ हुई। धन्य गुरु ! धन्य पिता !! महाराज के शिष्य 'श्री हरिसागरजी' नाम से उद्घोषित धन्य कुमार !!! किये। साधुता के अड्कुर चरित नायक के गुरु भाई श्री गुरु महाराज ने अपनी वृद्धावस्था के कारण कुमार गणाधीश्वर पूज्य श्री भगवानसागरजी महाराज की विशेष देखभाल और पठन-पाठन का भार अपने साहब के शिष्य अध्यात्म योगी चैतन्यसागरजी म० उर्फ सहयोगी महातपस्वी श्री छगनसागरजी महाराज को चिदानन्दजी महाराज महोपाध्याय श्री सुमतिसागरजी दिया । पूज्य तपस्वोजो के योग्य अनुशासन में महामहिम महाराज, मुनि श्री धनसागरजी महाराज, मुनि श्री तेजशालिनी मेधावाले कुमार ने साधु क्रिया के सूत्र थोड़े ही सागरजी महाराज, श्री त्रैलोक्यसागरजी महाराज और समय में सीख लिये। पूर्व जन्म के पुण्योदय की प्रबलता हमारे चरितनायक आचार्य श्री जिनहरिसागरसूरीश्वरजी से आठ वर्ष की बाल्प अवस्था में गुरु महाराज की परम महाराज हुए। दया से साधुता के बोज अङ्कुरित हो गये। आदर्श जीवन साधु श्री हरिसागरजी पूज्य श्री छगनसागरजी महाराज की वृद्धावस्था होने कुमार हरिसिंह जब कुछ अधिक साढ़े आठ वर्ष के से और हमारे चरितनायक की बाल अवस्था होने से सं० हुए, तब युवकों का सा जोश, और वृद्धों का सा अनुभव १९५७ से १९६५ तक के चातुर्मास लोहावट और फलोदी रखते थे। गुरु महाराज ने माता पिता को और स्थानीय (मारवाड़) में ही हुए। इस सानुकूल संयोग में ज्ञान-तप (फलोदी) जैन संघ को अनुमति से आपकी दीक्षा का और अवस्था से स्थिविर पद को पाये हुए पूज्य श्री छगनप्रशस्त मुहुर्त १६५७ आषाढ़ कृष्ण ५ के दिन निर्धारित सागरजी महाराज ने आपको संस्कृत व प्राकृत भाषा को किया। अपने आयुष्य की अवधि निकट आ जाने से पढ़ाने के साथ-साथ प्रकरणों का तत्व-ज्ञान और आगमों श्री गुरु महाराज ने श्री संघ से खमत-खामणा करते हुए का मौलिक रहस्य भली प्रकार से समझा दिया। विद्याअन्तिम आज्ञा दो कि 'हरिसिंह को योग्य अवस्था होने पर गुरु को परम दया और आपकी प्रोढ़ प्रज्ञा ने आपके इसे मेरा उतराधिकारी मानना' । संघ के मुखिया महा- व्यक्तित्व को आदर्श और उन्नत बना दिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211387
Book TitlePrabhavak Acharya Jinharisagarsuri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherZ_Manidhari_Jinchandrasuri_Ashtam_Shatabdi_Smruti_Granth_012019.pdf
Publication Year1971
Total Pages5
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size554 KB
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