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प्रभावक प्राचार्यदेव श्री जिनहरिसागरसूरीश्वर
[ ले० मुनिश्री कान्तिसागरजी ]
आचार्य पद की महत्ता जैन शासन में आचार्यों का स्थान की तीर्थंकर भगवान् से दूसरे नम्बर पर ही आता है क्योंकि जिस समय भव्यामाओं को मोक्ष मार्ग दिखा कर श्रीतीर्थंकर भगवान् अजरामर पद को प्राप्त हो जाते हैं, उस समय उनके विरहकाल में द्वादशाङ्गी रूप सम्पूर्ण प्रवचन को और जैन संघ के विशिष्ट उत्तरदायित्व को आचार्य देव ही धारण करते हैं । अतएव प्रवचन प्रभावक प्रातःस्मरणीय आचार्य देवों के पुनीत चरित्रों को जानना प्रत्येक आत्महितैषी का कर्तव्य हो जाता है । अत: एक ऐसे ही आचार्यदेव के दिव्य जीवन से परिचय कराया जाता है। जिसकी अतुल कीर्त्ति किरणों से मारवाड का प्रत्येक प्रदेश आज मान है ।
प्रकाश
पूर्व सम्बन्ध
श्रीमन्महावीर भगवान् के ६७वें पट्टधर श्रीजिनभक्ति सूरिजी म० के पट्टशिष्य श्रोप्रीतिसागरजी महाराजने वि० की ११वीं शताब्दी में पति समुदाय में बढ़ते हु शिथिलाचार को और प्रभुपूजा विरोधी ढुंढक मत के प्रचार को देखकर वाचनाचार्य श्री अमृतधर्मजी म० और महोपाध्याय श्रीक्षमा कल्याणजी महाराज जो कि आपके शिष्य-प्रशिष्य थे- के साथ श्रीसिद्धाचल तीर्थाधिराज पर क्रियोद्वार किया था । महोपाध्याय श्रीक्षमाकल्याणजी म० की शिष्य परम्परा में परमोपकारी सिद्धान्तदधि गणाधीश्वर श्रीसुखसागरजी महाराज हुए। आपका समुदाय खरतर गच्छीय साधुओं में अधिक प्राचीन एवं सुविस्तृत रूपसे वर्तमान है । श्रीसुखसागरजी महाराज की समुदाय के अधिनायक
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आबाल ब्रह्मचारी प्रवचन - प्रभावक पूज्य श्रीजिनहरिसागर सूरीश्वरजी महाराज थे । आपका ही पुनीत चरित्र प्रस्तुत लेख में प्रकाशित किया जाता है ।
कुमार हरिसिंह
जोधपुर राज्य के नागोर परगने में प्राकृतिक सौन्दर्य से हराभरा 'रोहिणा' नाम का एक छोटा सा गांव है। वहां खेती- पशुपालन आदि स्वावलम्बी कर्म वाले और युद्धभूमि में दुश्मनों से लोहा लेनेवाले, क्षत्रियोचित गुणों से स्वतन्त्र जीवन वाले जाट वंशीय भुरिया खानदान के लोगों की जमींदारी है
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जमींदारों के प्रधान पुरुष - श्रीहनुमन्त सिंहजी की धर्मपत्नी श्रीमती केसर देवी की पवित्र कख से वि० सं० १९४६ के मार्गशीर्ष शुक्ला ७ के दिन दिव्य मुहूर्त में हमारे चरित नायक का जन्म हुआ था । हरि-सूर्य और सिंह के समान तेजोमय भव्य आकृति और महापुरुषों के प्रधान लक्षणों से युक्त अपने सुकुमार को देखकर माता-पिता ने आपका गुणानुरूप नाम 'श्रीहरिविह'
रखा था ।
सफल संयोग
अपनी अलौकिक लीलाओं से माता-पितादि परिजनों को आनन्दित करते हुए कुमार हरिसिंह जब करीब ६-७ वर्ष के हुए तब अपने पिता के साथ पूज्य गणाधीश्वर श्री भगवान्सागरजी महाराज जो कि गृहस्थावस्था में आपके चाचा लगते थे - के दर्शन के लिये फलोदी ( मारवाड़) गये । बाल लीला के साथ आपने वंदन करके श्रीगुरुमहाराज की पापहारिणी चरणधूलि को अपने मस्तक में लगाई | श्रीगुरुदेव ने दिव्य-दृष्टि से आप में भावी प्रभाव -
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