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सं० १३७९ में मार्गशीर्ष कृष्ण ५ को अनेक नगरों के सम्मिलित हो संखेश्वर तीर्थादि को यात्रा करते हुए आषाढ़ महर्द्धिक श्रावकों की उपस्थिति में सेठ तेजपाल ने शांति- कृष्ण ६ के दिन शत्रुजय पहुंचे। वहाँ उसो दिन दो दीक्षाएं नाथ विधिचैत्य में जलयात्रा सहित प्रतिष्ठा महोत्सव हुई। दूसरे दिन समवसरण, जिनपतिसूरि, जिनेश्वरसूरि मनाया। इसी दिन शत्रुजय महातीर्थ पर खरतरवसही में आदि गुरुमूर्तियों की प्रतिष्ठा के साथ पाटण में पूर्व मानतुंगप्रासाद की नींव डाली गयी। श्रीजिनकुशलसूरिजी प्रतिष्ठित युगादिदेव भगवान को स्थापित किया । ने शिला, रत्न और धातुमय १५० प्रतिमाएं स्वकीय मूल आषाढ़ कृष्ण ६ के दिन ब्रतग्रहण, नन्दी महोत्सवा दि के साथसमवशरणद्वय, जिनचन्द्रसुरि, जिनरत्नसूरि आदि के साथ साथ सुखकीर्ति गणि को वाचनाचार्य पद दिया। उस नाना अधिष्ठायक मूर्तियों की प्रतिष्ठा की। इस महोत्सव यात्रीसंघ के द्वारा तीर्थ के भण्डार में ५००००) रुपये की में भीमपल्ली और आशापल्ली आदि के श्रावकों ने भी आमदनी हुई। काफी सहयोग दिया था। प्रतिष्ठा के अनन्तर सूरि महाराज यह विशाल यात्री संघ सूरिजी के साथ आषाढ़ सुदि बीजापुर संघ की प्रार्थना से वहां पधारे और वासुपूज्य १४ को गिरनार पहुँचा, यहाँ भी संघ के द्वारा विविध प्रभु के महातीर्थ की वंदना की । फिर त्रिशृङ्गम पधारे और उत्सवादि हुए । तीर्थ के भंडार में ४००००) रुपये की संघ सहित तारंगाजी एवं आरासण तीर्थों की यात्रा की। आमदनो हुई। आनन्द के साथ यात्रा सम्पन्न कर श्रावण मन्त्रीदलीय जगतसिंह ने स्वधर्मी वात्सल्य, ध्वजारोपादि शुक्ल १३ को पाटण पधारे । १५ दिन तक नगर के बाहर कई उत्सव किये। सूरिजी ने यात्रा से लौटकर पाटण उद्यान में ठहर कर भाद्रपद कृष्ण ११ को समारोह पूर्वक चातुर्मास किया।
नगर-प्रवेश हुआ, तदनन्तर संघ ने दिल्ली की ओर प्रस्थान ___सं० १३८० में सेठ ते नपाल रुद्रपाल के मानतुंगविहार किया। जिनालय के योग्य मूलनायक युगादीश्वर भगवान की २७ संवत् १३८१ मिती वैशाख कृष्ण ५ को पाटण के अंगुल को कर्पूर-धवल प्रतिमा, जिनप्रबोधसूरि, जिनचन्द्र- शांतिनाथ विधिचैत्य में सूरिजी के करकमलों से विराट सूरि, कपर्दी यक्ष, क्षेत्रपाल, अंबिकादि एवं ध्वजदण्डादि प्रतिष्ठा-महोत्सव संपन्न हुआ। इनमें जालोर, देरावर तथा के साथ अन्य श्रावकों की निर्मापित बहुत सी प्रतिमाओं शत्रुजय ( बूल्हावसही और अष्टापद प्रासाद के लिए २४ की प्रतिष्ठा करवायो । मार्गशीर्ष कृष्ण ६ को मालारोपण बिंब ), उच्चानगर के लिए अगणित जिन प्रतिमाएं तथा ब्रतग्रहण, नन्दो महोत्सवादि विस्तार से उत्सव हुए। पाटण के लिए जिनप्रबोधसूरि, देरावर के लिए जिनचन्द्रसूरि,
दिल्ली निवासी सेठ रयपति ने सम्राट गयासुद्दीन अंबिका आदि अधिष्ठायक व स्वभंडार योग्य समवसरण की तुगलक से तीर्थयात्रा के लिए फरमान प्राप्त कर श्रीजिन- भी प्रतिष्ठा को । वैशाख कृष्ण ६ के दिन दो बड़ी दीक्षाएं', कुशलसूरिजी से अनुमति मगाई, फिर विशाल संघ के साथ पांच साधु-साध्वियों की दीक्षा, जयधर्म गणि को उपाध्यय वै० कृ०७ को प्रयाण कर के कन्यानयन, नरभट, फलौदी पद तथा अन्य व्रत ग्रहणादि विस्तार से हए। पार्श्वनाथ की यात्रा कर देश-विदेश के संघ सहित मार्गवर्ती सरिमहाराज को वीरदेव आदि ने पाटण से अत्यन्त आग्रह तीर्थस्थान करते हुए पाटण पहुँचे । श्रीजिनकुशलसूरिजी को पूर्वक भीमपल्ली बुलाया। संघ ने सम्राट गयासुद्दोन से तीर्थभी अत्यन्त आग्रहपूर्वक संघ के साथ पधारने की विनती यात्राके हेतु फरमान प्राप्त कर ज्येष्ठ कृष्ण ५को भीमपल्ली से की। सूरिजो धु और १६ साध्वियों के साथ संघ में प्रयाण किया। सरिजी के साथ १२ साधु और कई साध्वियां
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