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पुरुषार्थसिद्धयुपाय : एक-अध्ययन
पं. ब. माणिकचंद्रजी चवरे, कारंजा
'पुरुषार्थसिद्धयुपाय' आचार्य अमृतचंद्र का आचारविषयक अद्भुत ग्रंथ है। आचार्य श्री अमृतचंद्र विक्रम की १२ वीं सदी के दृष्टि-संपन्न विद्वान् , मर्मज्ञ भाषाप्रभु, अधिकार संपन्न सन्तश्रेष्ठ हैं । इनकेः-१ पुरुषार्थसिद्धयुपाय, २ तत्त्वार्थसार, ३ समयसार आत्मख्याति-टीका, ४ प्रवचनसार-तत्त्वदीपिका टीका, ५ पंचास्तिकाय-समयव्याख्या टीका ये पांच ग्रंथ मुद्रित रूपमें हमें उपलब्ध हैं। ये विद्वन्मान्य ग्रंथ हैं । आम्नाययुक्ति योग से सुसंपन्न हैं। इसके सिवा 'स्फुटमणिकोश' नामक उद्भट पच्चिसिकाओं का संग्रह वर्तमानही में उपलब्ध हुआ है। जिसका संपादन हो रहा है। इस प्रकार कुल छह ग्रंथों की अपूर्व संपत्ति दृष्टिगोचर होती है। निर्दोष तत्त्व-मूल यथार्थ कहना, युक्तिसहित कहना, संक्षेप में सूत्र रूपसे कहना, अधिकारसंपन्न अनुभव की भाषा में कहना ये आचार्य रचना के सातिशय विशेष हैं।
पुरुषार्थसिद्धयुपाय में आर्याच्छन्द के कुल २२६ श्लोक हैं। ग्रंथ छह प्रमुख विभागों में विभक्त है।
१ ग्रंथपीठिका (श्लोक १-१९) मंगल, तत्वमूल, कार्यकारण भाव इ.। २ सम्यग्दर्शनाधिकार (श्लोक २०-३०) स्वरूप, आठ अंगों का निश्चय व्यवहार कथन । ३ सम्यग्ज्ञानाधिकार (श्लोक ३१-३६) सम्यद्गर्शन से अविनाभाव और कार्यकारण संबंध । ४ सम्यक्चारित्राधिकार (३७-१७४) बारह व्रतों की अहिंसा, पोषकता इ. । ५ सल्लेखनाधिकार (श्लोक १७५-१९६) जिसमें व्रतातिचारों का भी वर्णन सम्मिलित है। ६ सकलचारित्राधिकार (श्लोक १९७-२२६) जिसमें रत्नत्रय धर्म की निर्दोषता युक्तिपूर्वक
सिद्ध है।
ग्रंथ के ऊपर आचार्यकल्प पं. टोडरमलजी की हिंदी टीका है जो अपूर्ण थी और उसे कविवर्य पं. दौलतरामजी ने सं. १८२७ में पूर्ण की। इसका वर्तमान हिंदी अनुवाद पं. नाथूरामजी प्रेमी ने किया है। यदि इस ग्रंथ को उपासक श्रावकों की 'आचारसंहिता' कही जाय तो अत्युक्ति नहीं होगी।
पीठिका-बंधरूप प्रथम अधिकार में ग्रंथकार ने मंगलाचरण में केवल ज्ञान को परंज्योति कहा है, उसे ऐसे दर्पण की उपमा दी जिसमें संपूर्ण पदार्थमालिका यथार्थ प्रतिबिम्बित है । गुणी किसी विशिष्ट व्यक्ति के नामस्मरण के ऐवज में गुणमात्र का स्मरण सहेतुक है। परीक्षाप्रधान अभेदरूप कथनशैली का यह मंगलमय
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