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पावागढ़ तीर्थ की ऐतिहासिकता
o आचार्य श्रीजगच्चन्द्र सूरि जी भारतीय संस्कृति में तीर्थों की भी अपनी एक संस्कृति रही है। ऐतिहासिकता और पवित्रता उनकी प्रथम और मुख्य पहचान है। जैन शास्त्रों में दो प्रकार के तीर्थों का वर्णन आता है स्थावर तीर्थ और जंगम तीर्थ । जो एक स्थान पर स्थिर रहता है उसे स्थावर तीर्थ कहा जाता है और जो चलते-फिरते रहते हैं उन्हें जंगम तीर्थ कहा जाता है।
___ तीर्थ की परिभाषा यह है कि जो तारता है संसार सागर से ऊपर उठाता हैं उन्हें तीर्थ कहा जाता है। भारतीय इतिहास में तीर्थों का स्थान किसी पहाड़ की तलहटी या किसी नदी के तट पर होता है । वह स्थान सांसारिक कोलाहल से दूर, दूषित वातावरण से रिक्त, मनभावन प्राकृतिक सौन्दर्य से युक्त होता है। ऐसा स्थान ही यात्रिक को मानसिक, शारीरिक एवं आत्मिक शान्ति तथा प्रसन्नता प्रदान करने में समर्थ होता है। ध्यान, साधना, योग, तप और जप आदि के लिए तीर्थों के अतिरिक्त अन्य कोई स्थान उपयुक्त नहीं होता।
तीर्थ की इन्हीं महत्ती विशेषताओं को लिए बड़ौदा से ५० कि.मी. की दूरी पर पावागढ़ तीर्थ स्थित है। दिगम्बर मान्यता के अनुसार इस तीर्थ की स्थापना बीसवें तीर्थंकर भगवान श्रीमुनि सुव्रत स्वामी के समय हुई थी। अत्यन्त पवित्र होने के कारण इसे पावागढ़ के नाम से पुकारा जाता है। उसके बसने-उजड़ने का इतिहास बहुत लम्बा है । विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी के अन्त तक इसकी समृद्धि, उन्नति और विकास अपने चरमोत्कर्ष पर रही। इन्हीं समृद्धि और प्रसिद्धि से आकर्षित होकर कई विदेशी और विधर्मी इस पर चढ़ आए। कई बार पावागढ़ विजित होकर गर्वोन्न हुआ है और कई बार पराजित होकर लज्जित भी । कई श्रेष्ठी यहां ऐसे हुए पावागढ़ तीर्थ की ऐतिहासिकता
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