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पालि-भाषा के बौद्ध ग्रन्थों में जैन धर्म
डा. गुलाबचन्द चौधरी, एम्. ए., पीएच्. डी.
भगवान् बुद्ध ने अपने सारे उपदेश जिस जनभाषा में दिये थे उसका नाम मागधी था। मागधी में बुद्धवचनों या उक्तियों को परियाय या पलियाय कहा गया है। कालान्तर में इसी परियाय-पलियाय से पालि शब्द निकला जिसका अर्थ भाषा के साथ लगाने पर होता है बुद्धवचनों की भाषा। बौद्ध ग्रन्थ संस्कृत में भी लिखे गये हैं पर बुद्धवचनों का प्रतिनिधित्व करनेवाली भाषा पालिभाषा ही है।
जिस तरह बुद्ध ने जनभाषा में उपदेश दिया था उसी तरह भगवान् महावीर ने भी अपने उपदेश तत्कालीन जनभाषा अर्धमागधी में दिये थे। दोनों भाषाएं मगध में बोली जानेवाली मागधी के ही रूप हैं। दोनों सम्प्रदायों के नेताओं ने एक ही क्षेत्र में विहार कर अपने उपदेश दिये, इसलिए उन दोनों के श्रागम ग्रन्थों में भाषा, भाव, शैली एवं वर्णन आदि के साम्य को देखकर इस बात में तनिक भी सन्देह नहीं रह जाता कि दोनों महापुरुष-महावीर और बुद्ध-समकालीन थे। पालि ग्रन्थों के वर्णन से हमें यह भी मालूम होता है कि वे दोनों महात्मा कभी कभी एक ही नगर, एक ही गांव और एक ही मुहल्ले में विहार करते थे, पर इस बात का उल्लेख किसी भी सम्प्रदाय के ग्रन्थ में नहीं मिलता कि दोनों युगपुरुषों ने अपने मतभेदों पर आपस में वार्तालाप या बहस की हो। हां, इस बात की सूचना जरूर मिलती है कि इन दोनों के शिष्य तथा अनुयायिवर्ग प्रायः एक दूसरे के पास आतेजाते तथा शंकासमाधान व वादविवाद करते थे।
जो हो, पालि ग्रन्थों के पढ़ने से यह स्पष्टतः विदित होता है कि भगवान् बुद्ध ने तथा उनके समकालीन शिष्यों ने जैन सम्प्रदाय की अनेकों बातों को अपनी आँखों से देखा था। इन आँखों देखे वर्णनों से हमें जैनों के इतिहास, उनके दार्शनिक सिद्धान्त और प्राचारविषयक मान्यताओं का बहुत कुछ परिज्ञान होता है। इन पंक्तियों द्वारा उक्त बातों को दिखलाने का किञ्चित् प्रयत्न किया जायगा।
इतिहास
पालि ग्रन्थों में जैन सम्प्रदाय का नाम 'निगण्ठ', 'निग्गएठ' एवं 'निगन्ध' श्राता है, जिसे हम प्राकृत में नीयएठ तथा संस्कृत में निर्ग्रन्थ नाम से कहते हैं। उक्त सम्प्रदाय के प्रचारक महात्मा का नाम नातपुत्र व नाटपुत्त रूप से मिलता है जिसे हम प्राकृत में नातपुत्त या नायपुत्त तथा संस्कृत में ज्ञातपुत्र नाम से कहते हैं। इस तरह निगएट सम्प्रदाय के नातपुत्त को एक शब्द से निगण्ठनातपुत्त कहा गया है। निगण्ठ का अर्थ पालि ग्रन्थों में बन्धनरहित है, जिसका आशय है, अन्तरंग और बहिरंग परिग्रह से रहित। पर नातपुत्त शब्द की व्युत्पत्ति का ज्ञान उक्त ग्रन्थों से नहीं होता। हां, जैन ग्रन्थों की सहायता से हम यह जानते हैं कि महावीर क्षत्रियों की एक शाखा 'ज्ञातृ' =नात =नाय में उत्पन्न हुए थे और जिस तरह बौद्ध ग्रन्थों में बुद्ध को शाक्य वंश में उत्पन्न होने के कारण शाक्यपुत्र कहा गया है उसी तरह महावीर को नातपुत्त। सामञफल श्रादि कुछ सूत्रों में महावीर को अग्निवेशन (अमिवैश्यायन) नाम से सम्बोधित किया गया है पर जैन ग्रन्थों के देखने से यह मालूम होता है कि यह बात गलत है। महावीर का गोत्र काश्यप था पर उनके एक प्रमुख शिष्य सुधर्मा का गोत्र अवश्य अग्निवैश्यायन था। यहां ऐसा प्रतीत होता है कि पालि-ग्रन्थों के संकलनकाल में संकलनकर्ताओं द्वारा यह विपर्यास कर दिया गया है।
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