________________ नीचे पर्युषण कर लेना चाहिए। अपवाद मार्ग में भी पञ्चमी, दशमी, अमावस्या एवं पूर्णिमा इन पर्व तिथियों में ही पर्युषण करना चाहिए, अन्य तिथियों में नहीं। इस बात को लेकर निशीतभाष्य एवं चूर्णि में यह प्रश्न उठाया गया है कि भाद्र शुक्ल चतुर्थी को अपर्व तिथि में पर्युषण क्यों किया जाता है? इस सन्दर्भ में उसमें कालक आचार्य की कथा दी गयी है। कथा इस प्रकार है कालक आचार्य की कथा कालक आचार्य विचरण करते हुए वर्षावास हेतु उज्जयिनी पहुँचे। किन्तु किन्हीं कारणों से राजा रुष्ट हो गया, अतः कालक आचार्य ने वहाँ से विहार करके प्रतिष्ठानपुर की ओर प्रस्थान किया और वहाँ श्रमण संघ को आदेश भिजवाया कि जब तक हम नहीं पहुँचते हैं तब तक आप लोग पर्युषण न करें। वहाँ का सातवाहन राजा श्रावक था, उसने कालक आचार्य को सम्मान के साथ नगर में प्रवेश कराया। प्रतिष्ठानपुर पहुँचकर आचार्य ने घोषणा की कि भाद्र शुक्ल पञ्चमी को पर्युषण करेंगे। यह सुनकर राजा ने निवेदन किया कि उस दिन नगर में इन्द्रमहोत्सव होगा। अतः आप भाद्र शुक्ल षष्ठि को पर्युषण कर लें। किन्तु आचार्य ने कहा कि शास्त्र के अनुसार पञ्चमी का अतिक्रमण करना कल्प्य नहीं है। इस पर राजा ने कहा कि फिर आप भाद्र शुक्ल चतुर्थी को ही पर्युषण करें। आचार्य ने इस बात की स्वीकृति दे दी और श्रमण संघने भाद्र शुक्ल चतुर्थी को पर्युषण किया।13 यहाँ ऐसा लगता है कि आचार्य लगभग भाद्र कृष्ण पक्ष के अन्तिम दिनों में ही प्रतिष्ठान पर पहुंचे थे और भाद्र कृष्ण अमावस्या को पर्युषण करना सम्भव नहीं था। यद्यपि वे अमावस्या के पूर्व अवश्य ही प्रतिष्ठानपुर पहुँच चुके थे, क्योंकि निशीथचूर्णि में यह भी लिखा है कि राजा ने श्रावकों को आदेश दिया कि तुम लोग भाद्र कृष्ण अमावस्या को पाक्षिक उपवास करना और भाद्र शुक्ल प्रतिपदा को विविध पकवानों के साथ पारणे के लिए मुनिसंघ को आहार प्रदान करना। चूँकि शास्त्र-आज्ञा के अनुसार सांवत्सरिक प्रतिक्रमण के पूर्व तेला करना होता था, अतः भाद्र शुक्ल द्वितीया से चतुर्थी तक श्रमण संघ ने तेला किया। भाद्र शुक्ल पञ्चमी को पारणा किया। जनता ने आहार-दान कर श्रमण संघ की उपासना की। सी कारण महाराष्ट्र देश में भाद्र शुक्ल पञ्चमी श्रमण पूजा नाम से भी प्रचलित है।14 यह भी सम्भव है कि इसी आधार पर हिन्दू परम्परा में ऋषि पञ्चमी का विकास हआ है। पर्युषण/दशलक्षण और दिगम्बर परम्परा जैसा कि हमने पूर्व में निर्देश किया कि दिगम्बर ग्रन्थ मूलाचार के समयसाराधिकार की 118वीं गाथा में और यापनीय संघ के ग्रन्थ भगवती आराधना की 423वीं गाथा में दस कल्पों के प्रसङ्ग में पर्युषण कल्प का उल्लेख हुआ है। किन्तु ऐसा लगता है कि पर्युषण की मूलभूत अवधारणा से दक्षिण भारत में विकसित दिगम्बर परम्परा अपरिचित होती है। मूलाचार में मुनिलिङ्ग प्रसङ्ग में दस कल्प सम्बन्धी 13 वही, 3153 (कथा विस्तारपूर्वक वर्णित है) 14 वही, 3153 (कथा विस्तारपूर्वक वर्णित है) Page |9