________________ पर्युषण (संवत्सरी) के आवश्यक कर्तव्य 1. तप/संयम निशीथ के अनुसार पर्युषण के दिन कणमात्र भी आहार करना वर्जित था।17 निशीथभाष्य में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि जो साधु पक्खी को उपवास, चौमासी को बेला और पज्जोसवण (संवत्सरी) को तेला नहीं करता है, उसे क्रमशः मासगुरु, चतुर्लघु ओर चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। यद्यपि चूर्णि में यह मान लिया गया है कि किसी परिस्थिति विशेष के कारण पर्युषण में आहार करता हुआ भी शुद्ध है।18 साधु-साध्वी वर्ग के साथ ही श्रावक वर्ग में पर्युषण (संवत्सरी) में उपवास करने की परम्परा थी। निशीथचूर्णि में चण्डप्रद्योत और उदयन की कथा से यह बात सिद्ध होती है (निशीथचूर्णि, भाग-3, पृ. 147) / इस प्रकार पर्युषण पर्व में तप साधना एक आवश्यक कर्तव्य है। तप का मूल उद्देश्य अपनी इन्द्रियों पर संयम रखना है और पर्युषण संयम-साधना का पर्व है। 2. सांवत्सरिक प्रतिक्रण/वार्षिक प्रायश्चित्त पर्युषण का दूसरा महत्वपूर्ण कर्तव्य सांवत्सरिक प्रतिक्रमण। वार्षिक प्रायश्चित्त है। विगत वर्ष में हुए व्रतभंग, दोषसेवन, अनाचार या दुराचारों का अन्तर्निरीक्षण कर, उनकी आलोचना कर, उनके लिए प्रायश्चित्त ग्रहण करना यह पर्युषण का दूसरा आवश्यक कर्तव्य है। श्रमण, श्रमणी, श्रावक एवं श्राविका सभी के लिए यह आवश्यक है। 3. कषायों का उपशमन/क्षमायाचना जैन साधना निर्ग्रन्थ भाव की साधना है, जीवन से काम-क्रोध की गाँठों का विसर्जन है, राग-द्वेष से ऊपर उठना है। चाहे श्रावकत्व हो या श्रमणत्व इसी बात पर निर्भर करता है कि व्यक्ति की क्रोध, अहंकार, कपट और लोभ की वृत्तियाँ शिथिल हों। मन तृष्णा एवं आसक्ति के तनावों से मुक्त हो। पर्यषण इन्हीं की साधना का पर्व है। कल्पसत्र में कहा गया है- यदि क्लेश उत्पन्न हआ हो तो साध क्षमायाचना कर ले। क्षमायाचना करना, क्षमा प्रदान करना, उपशम धारण करना और करवाना साधु का आवश्यक कर्तव्य है, क्योंकि जो उपशम (शान्ति) धारण करता है, वह (भगवान् की आज्ञा का) आराधक होता है, जो ऐसा नहीं करता है, वह विराधक होता है, क्योंकि उपशमन ही श्रमण जीवन का सार है (उवसम सारं खु सामण्णं)।19 निशीथचूर्णि में कहा गया है कि यदि अन्य समय में हुए क्लेश कटुता की उस समय क्षमायाचना न की गई हो तो पर्युषण में अवश्य कर लेवें।20 इस प्रकार पर्युषण तप, संयम की साधना के साथ कषायों के उपशमन का पर्व है। क्षमायाचना एक ऐसा उपाय है, जो कटुता के मल को धोकर हृदय को निर्मल बना देता है। प्रो. सागरमल जैन 1998 - जैन विदया के आयाम खंड 5 17 जे भिक्खू पज्जसवणाए इतिरियं पि आहारं आहारेति आहारेन्तं वा सातिज्जति। --निशिथसूत्रम्, संपा0 - मधुकर मुनि, प्रका0 - श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, 1978, 10/451 18 पंज्जोसवणआए जइ अट्ठमं न करेइ तो चउगुरुं, कारणे हिं पज्जोसवणाए आहारेंतो सुद्धो। -- निशिथचूर्णि, संपा0 - जिनदासगणि, प्रका0 -सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, 1975, 3217| 19 कल्पसूत्र, 2861 20 कसाय कडताए न खामितं तो-पज्जोसवणा सु अवस्सं विओसवेयव्वं। --निशीथचूर्णि, जिनदासगणि, प्रका0-सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, 1957,31791 Page | 15