________________ दिया जाता रहा हो। अन्य तैर्थिकों या गृहस्थों के उपस्थिति रहने पर प्रथम तो साधु अपने अपराधों या दोषों को स्वीकार ही नहीं करेंगे, साथ ही सबके समक्ष दण्ड दिये जाने पर उनकी बदनामी होगी। अतः सांवत्सरिक प्रतिक्रमण और पर्युषण-कल्प का जनता के समक्ष वाचन पहले निषिद्ध था। किन्तु कालान्तर में उस समाचारी (आचार सम्बन्धी भाग) को गौण करके तथा उसमें कथा भाग, इतिहास को जोड़कर गृहस्थों के समक्ष उसके पठन की परम्परा प्रचलित हो गई, जो कि आज 1500 वर्षों से निरन्तर प्रचलित है। अन्तकृत् दशाङ्गसूत्र के वाचक की प्रथा - स्थानकवासी और तेरापंथी में श्वेताम्बर समाज की स्थानकवासी और तेरापंथी परम्पराओं में कल्पसूत्र के स्थान पर अन्तकृत् दशाङ्गसूत्र के वाचक की प्रथा है। इसका प्रारम्भ स्थानकवासी परम्परा के उद्भव के साथ ही हुआ है। अतः यह प्रथा 400 वर्ष से अधिक पुरानी नहीं है। यद्यपि मूल कल्पसूत्र में ऐसा कुछ नहीं है जो स्थानकवासी परम्परा के प्रतिकूल हो, फिर भी इस नवीन प्रथा का प्रारम्भ क्यों हुआ यह विचारणीय है। प्रथम कारण तो यह हो सकता है कि श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा से अपनी भिन्नता रखने के लिए इसका वाचन प्रारम्भ किया गया हो। दूसरे इसे इसलिए चुना गया हो कि पर्युषण के आठ दिन माने गये थे और यह अष्टम अङ्ग था तथा इसमें आठ ही वर्ग थे। तीसरे यह कि कल्पसूत्र की अपेक्षा भी इसमें तप-त्याग की विस्तृत चर्चा थी, जो आडम्बर रहित तप-त्यागमय आचार प्रधान स्थानकवासी परम्परा के लिए अधिक अनुकूल थी। चौथे कल्पसूत्र का जिन टीकाओं के साथ वाचन हो रहा था, उनमें मूर्तिपूजा आदि सम्बन्धी ऐसे प्रसङ्ग थे जिनका वाचन करना उनके लिए सम्भव नहीं था। अतः उन्हें एक नये आगम का चुनाव ही अधिक उपयुक्त लगा हो। अन्तकृत् दशाङ्गसूत्र में प्रथम पाँच वर्गों में भगवान् अरिष्टनेमि काल के 41 त्यागी पुरुषों एवं 10 महिलाओं का जीवनवृत्त है। शेष तीन वर्गों में महावीरकालीन 16 त्यागी पुरुषों एवं 23 महिलाओं का जीवनवृत्त है, जिन्होंने साधना के उत्तुङ्ग शिखरों पर चढ़कर तथा देहभाव से ऊपर उठकर कठोर तपश्चर्याएँ की और अपने अन्तिम समय में कैवल्य को प्राप्त कर मोक्षरूपी लक्ष्मी का वरण किया। तत्त्वार्थसूत्र के दस अध्यायों के वाचन - दिगम्बर परम्परा में दिगम्बर परम्परा में इन दशलक्षणपर्व के दिनों में तत्त्वार्थसूत्र के दस अध्यायों के वाचन की परम्परा रही है, जो दिन की संख्या के साथ सङ्गतिपूर्ण है। तत्त्वार्थसूत्र जैन तत्त्वज्ञान का साररूप ग्रन्थ होने से पर्व के दिन में इसका वाचन उपयुक्त ही है। इसी प्रकार दस धर्मों पर प्रवचन भी नैतिक चेतना के जागरण की दृष्टि से उचित है। यद्यपि विभिन्न परम्पराओं में पर्युषण में पठनीय ग्रन्थों में से किसी का भी महत्त्व कम नहीं है, किन्तु जैन सङ्घ की एकात्मकता की दृष्टि से किसी समणसुत्तं जैसे सर्वमान ग्रन्थ के वाचन की परम्परा भी प्रारम्भ की जा सकती है। Page | 14