________________ पर आधारित थी। आज चूँकि उसका कोई कारण नहीं, पुनः स्वयं निशीथचूर्णि के अनुसार चतुर्थी अपर्व तिथि है; अतः आषाढ पूर्णिमा और भाद्र शुक्ल पञ्चमी में से किसी एक दिन को पर्व का मूल दिन चुन लिया जाये। शेष दिन उसके आगे हो या पीछे, यह अधिक महत्त्व नहीं रखता है-सुविधा की दृष्टि से उन पर एक आम सहमति बनाई जा सकती है। पर्युषण में पठनीय आगम ग्रन्थ कल्पसूत्र वाचन की परम्परा - श्वेताम्बर मूर्तिपूजक में वर्तमान में श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में पर्युषण में कल्पसूत्र वाचन की परम्परा है। पहले पर्युषण (संवत्सरी) के दिन साधुगण रात्रि के प्रथम प्रहर में दशाश्रुतस्कन्ध (आयारदशा) के आठवें अध्ययन पर्युषण कल्प का पारायण करते थे, जिसे पाश्चात्य विद्वानों ने वर्तमान कल्पसूत्र का प्रचीनतम अंश बताया है। कालान्तर में इस अध्याय को उससे अलग कर तथा इसके साथ महावीर, पार्श्वनाथ, अरिष्टनेमि और ऋषभ के जीवनवृत्तों एवं अन्य तीर्थंकरों के सामान्य उल्लेखों तथा स्थविरावली (महावीर से परवर्ती आचार्य परम्परा) जो जोड़कर कल्पसूत्र नामक स्वतन्त्र ग्रन्थ की रचना की गई, जो कि लगभग पन्द्रह सौ वर्षों से पर्युषण पर्व में पढ़ा जाता है। पर्युषण के अवसर पर जनसाधारण के समक्ष कल्पसूत्र पढ़ने की परम्परा का प्रारम्भ वीर निर्वाण के 980 या 993 वर्ष के बाद आनन्दपुर नगर में ध्रुवसेन राजा के समय हुआ था। जनसाधारण के समक्ष पढ़ने के उद्देश्य से ही इसमें तीर्थङ्करों के जीवन चरित्रों का समावेश किया गया था क्योंकि उस समय तक हिन्दुओं और बौद्धों में भी अपने उपास्य देवों के जीवन चरित्रों को जनसाधारण के समक्ष पढ़ने की प्रथा प्रारम्भ हो चुकी थी और जैन आचार्यों के लिए भी यह आवश्यक हो गया था कि वे भी अपने उपास्य तीर्थङ्करों का जीवनवृत्त अपने अनुयायियों को बतायें। ध्रुवसेन के पुत्रशोक को दूर करने का कथानक इस परम्परा के प्रारम्भ होने का क निमित्त माना जा सकता है, किन्तु उसका मूल कारण तो उपर्युक्त तत्कालीन परिस्थिति ही थी। यद्यपि इसके पूर्व भी 'पर्युषण-कल्प' की आवृत्ति पर्युषण (संवत्सरी) के दिन मुनि वर्ग सामूहिक रूप से करता था, तथापि निशीथ के अनुसार उसका गृहस्थों एवं अन्य तैर्थिकों के साथ पर्युषण करने का चातुर्मासिक प्रायश्चित (अर्थात् 120 दिन के उपवास का दण्ड) बताया गया है- जे भिक्खू अण्णउत्थिएणवा गारत्थिएणवा पज्जोसवेइ पज्जोसवंतं वा साइज्जइ-निशीथ (10/47) / सम्भवतः यह निषेध इसलिए किया गया था कि पर्युषण-कल्प का वाचन गृहस्थों एवं अन्य तैर्थिकों के समक्ष करने पर उन्हें मनि के वर्षावास सम्बन्धी आचार नियमों की जानकारी हो जायेगी और किसी को उसके विपरीत आचरण करते देखकर वे उसकी आलोचना करेंगे, इससे सङ्घ की बदनामी होगी। यह भी सम्भव है निशीथ की रचना के समय तक मनि जीवन में शिथिलाचार प्रविष्ट हो गया हो, अतः जनसाधारण के समक्ष मुनि आचार का विवेचन करना उचित नहीं समझा जाता हो। इस निषेध का एक तात्पर्य यह भी हो सकता है कि पर्युषण-कल्प की आवृत्ति के साथ सांवत्सरिक प्रतिक्रमण के अवसर पर साधुओं को उनके विगत वर्ष के अतिचारों या दोषों का प्रायश्चित्त भी Page | 13