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गहरा प्रभाव है कि इसमें श्रीहर्ष के भावों की, लगभग यही है-न कामवृत्तिर्वचनीयमीक्षते ( कुमार ५.८२)। उसी की शब्दावली में, आवृत्ति करके सन्तोष कर लिया कालिदास के उमा-बटु-संवाद में मनोवैज्ञानिक मार्मिकता गया है। श्रीहर्ष ने काव्याचार्यों द्वारा निर्धारित विभिन्न है। श्रीहर्ष और पद्मसुन्दर इस कोमल प्रसंग में भी शारीरिक तथा मनोवैज्ञानिक विरह दशाओं को इस प्रसंग चित्र काव्य के गोरख धन्धे में फंसे रहते हैं। उन्हें रोती में उदाहृत किया है। पद्मसुन्दर का वर्णन इस प्रवृत्ति हुई दमयन्ती तथा कनका ऐसी दिखाई देती हैं, जैसे वे से मुक्त है तथा केवल ४७ पद्यों तक सीमित है। दूतकम आंसू गिरा कर क्रमशः 'संसार' का 'ससार' तथा 'दांत' स्वीकार करने से पूर्व वसुदेव को वही आशंकाएँ मथित को 'दात' बनाती हुई बिन्दुच्युतक काव्य की रचना कर करती हैं ( ३.५७-७०) जिनसे नल पीड़ित है ( नैषध रही हों। ५.६६-१३७)। दूत का महल में, अदृश्य रूप में प्रवेश तथा वहाँ उसका आचरण दोनों काव्यों में समान रूप से पदमसुन्दर के स्वयंवर-वर्णन पर नैषध का प्रभाव वर्णित है।६ श्रीहर्ष ने छठे सर्ग का अधिकतर भाग स्पष्ट है। श्रीहर्ष का स्वयंवर-वर्णन अलौकिकता की दमयन्ती के सभागृह, दूती की उक्तियों तथा दमयन्ती के पर्तों में दबा हुआ है। उसमें पृथ्वीतल के शासकों के समर्थ प्रत्युत्तर ( ६.५८-११०) पर व्यय कर दिया है ; अतिरिक्त देवों, नागों, यक्षों, गन्धों आदि का विशाल पद्म सुन्दर ने समान प्रभाव तथा अधिक स्पष्टता के साथ जमघट है, जिसका श्रीहर्ष ने पूरे पांच सर्गों में (१०-१४) उसे मात्र चौबीस पद्यों में निबद्ध किया है। अगले ४७ जमकर वर्णन किया है। यदुसुन्दर का वर्णन भी इसके पद्यों से वेष्टित तृतीय सर्ग का अंश नैषध के आठवें सर्ग समान ही कथानक के प्रवाह में दुर्लध्य अवरोध पैदा करता का प्रतिरूप है। कुबेर के पूर्वराग का वर्णन (३.१२२- है। पद्मसुन्दर ने नैषध में वर्णित बारह राजाओं में ४१) नैषध चरित के आठवें सर्ग में दिक्पालों की विरह से दस को यथावत् ग्रहण किया है, पर वह नैषध की भांति वेदना की प्रतिध्वनि मात्र है (८.६४-१०८)। अन्तिम अतिमानवीय कर्म नहीं है यद्यपि उसमें भी देवों, गन्धर्वो साठ पद्य नेषध चरित के नवम् सर्ग का लघु संस्करण आदि का निर्धान्त संकेत मिलता है। वर्णन की लौकिक प्रस्तुत करते हैं। उनमें विषयवस्तु की भिन्नता नहीं है प्रकृति के अनुरूप पद्मसुन्दर ने अभ्यागत राजाओं का और भाषा तथा शेली में पर्याप्त साम्य है। दूत का अपना परिचय देने का कार्य कनका की सखी को सौंपा है, जो भेद सुरक्षित रखने का प्रयत्न, नायिका का उसका नाम- कालिदास की सुनन्दा के अधिक निकट है। धाम जानने का आग्रह तथा दूत के प्रस्तावका प्रत्याख्यान, रघुवंश के छठे सर्ग के इन्दुमती स्वयंवर की सजीवता को नायिका के करुण विलाप से द्रवित होकर दूत का आत्म-विकृत बनाकर उसे एक रूढ़ि का रूप दे दिया है। परिचय देना-ये समूची घटनाएँ दोनों काव्यों में पढी सातवें सर्ग में वर-वधू का विवाह-पूर्व आहार्य प्रसाधन जा सकती हैं। श्रीहर्ष को इस संवाद की प्रेरणा कुमार- नैषध के पन्द्रहवें सर्ग का, भाव तथा घटनाक्रम में इतना सम्भव के पंचम सर्ग से मिली होगी। वहाँ भी शिव वेष ऋणी है कि उसे श्रीहर्ष के प्रासंगिक वर्णन की प्रतिमूर्ति बदल कर आते हैं और अन्त में अपना वास्तविक रूप प्रकट माना जा सकता है। कहना न होगा, नैषध का यह करते हैं। नैषध चरित तथा यदुसुन्दर में दमयन्ती और वर्णन स्वयं कुमारसम्भव के सप्तम् सर्ग पर आधारित है, कनका दूत की उक्तियों का मुंहतोड़ जवाब देती हैं जहाँ इसी प्रकार वर-वधु को सजाया जा रहा है। विवाहजबकि पार्वती के पास बहु के तर्कों का समर्थ उत्तर केवल संस्कार तथा विवाहोत्तर सहभोज के वर्णन ( अष्टम् सर्ग) ६ यदुसुन्दर, ३.७२-११४; नैषधचरित, ६.८-४४ । • यदुसुन्दर, ३.१५०-१५७ ; नैषध चरित, ६.२७-३२ । ८ संसारमात्मना तनोषि संसारमसंशयं यतः । नेषध०, ६.१०४ ।
तद्विन्दुच्युतकमश्रपातान्मां दांतमेव किमु दातमलं करोषि। यदुसुन्दर, ३.१६० ।
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