Book Title: Padmasundar ki Ek Agyat Rachna Yadusundar Author(s): Satyavrat Publisher: Z_Bhanvarlal_Nahta_Abhinandan_Granth_012041.pdf View full book textPage 1
________________ प्रशंसनीय प्रयत्न किया है किन्तु उसे अनेकशः, अपनी असहायता अथवा नैषध के दुर्धर्ष आकर्षण के कारण काव्य को संक्षेप करने को बाध्य होना पड़ा है जिससे यदुसुन्दर कहीं-कहीं रूपान्तर की अपेक्षा नैषधचरित के लघु संस्करण का आभास देता है। यदुसुन्दर में मथुराधिपति यदुराज समुद्रविजय के अनुज वसुदेव तथा विद्याधर-सुन्दरी कनका के विवाह तथा विवाहोत्तर केलियों का वर्णन है, जो प्रायः सर्वत्र श्रीहर्ष का अनुगामी है। यदुसुन्दर अभी अमुद्रित है। बारह सर्गों के इस महत्त्वपूर्ण काव्य की एकमात्र उपलब्ध हस्तप्रति ( संख्या २८५८, पुण्य), अहमदाबाद स्थित लालपत भाई दलपत भाई भारती विद्या संस्थान में सुरक्षित है। प्रस्तुत विवेचन, ५४ पत्रों के इसी पत्रलेख पर आधारित है। पद्मसुन्दर की एक अज्ञात रचना : यदुसुन्दर -डॉ० सत्यव्रत कवि-परिचय तथा रचनाकाल : गवर्नमेण्ट कॉलेज, श्री गंगानगर (राज.) ___ पद्मसुन्दर उन जैन साधुओं में अग्रगण्य थे, जिनका मुगल सम्राट अकबर से घनिष्ठ सम्बन्ध था। उनकी मैत्री तपागच्छ के सुविज्ञात आचार्य तथा सम्राट अकबर की पुष्टि पद्मसुन्दर के ग्रन्थों से भी होती है। अकबर के आध्यात्मिक मित्र उपाध्याय पदमसुन्दर का यदुसुन्दर- शाहि शृगार दर्पण से स्पष्ट है कि अकबर की सभा में महाकाव्य उनकी नव प्राप्त कृति है। जैन साहित्य में पद्मसुन्दर को उसी प्रकार प्रतिष्ठित पद प्राप्त था, जैसे कालिदास, माघ आदि प्राचीन अग्रणी कवियों के अनुकरण जयराज बाबर को मान्य था और आनन्दराय ( सम्भवतः पर अथवा उनकी समस्यापूर्ति के रूप में तो कुछ काव्यों आनन्दमेरु ) हुमायूँ को । हर्षकीतिरचित धातुतरंगिणी का निर्माण हुआ है, किन्तु यदुसुन्दर एकमात्र ऐसा के निम्नोक्त उल्लेख के अनुसार पद्मसुन्दर न केवल महाकाव्य है, जिसमें संस्कृत-महाकाव्य-परम्परा की अकबर की सभा में समादृत थे, उन्हें जोधपुर नरेश मालदेव महानता एवं तुच्छता के समन्वित प्रतीक, श्रीहर्ष के से भी यथेष्ट सम्मान प्राप्त था । सम्राट अकबर ने जो ग्रन्थनैषधचरित को रूपान्तरित (एडेप्ट ) करने का दुस्साध्य संग्रह आचार्य हीरविजय को भेंट किया था, वह उन्हें कार्य किया गया है। महान कृति का रूपान्तरण विष तपागच्छीय पद्मसुन्दर से प्राप्त हुआ था। उनके दिवंगत के समान है, जिससे आहत मौलिकता को पाण्डित्यपूर्ण होने पर वह ग्रन्थराशि सम्राट के पास सुरक्षित थी। क्रीड़ाओं की संजीवनी से भी पुनर्जीवित नहीं किया जा पदमसुन्दर के परवर्ती कवि देव विमलगणि ने अपने हीर सकता। पदमसुन्दर ने श्रीहर्ष की दृप्त बहुश्रतता, कृत्रिम सौभाग्य में इस घटना तथा उक्त ग्रन्थ राशि में सम्मिलित भाषा तथा जटिल-दुरूह शैली के कारण वज्रवत् दुमद्य प्रस्तुत यदुसुन्दर सहित नाना ग्रन्थों का आदरपूर्वक उल्लेख नैषधचरित का उपयोगी रूपान्तर प्रस्तुत करने का किया है। हीरविजय अकबर से सम्वत् १६३६ में १ शृङ्गारदर्पण, प्रशस्ति, २। २ (अ) हीरसौभाग्य, १४.६१-६२, ६६ । (आ) वही, १४.६६, स्वोपज्ञटीका : काव्यानि .. कादम्बरी-पद्मानन्द-यदुसुन्दराद्यानि । [ ७३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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