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में वास्तविक कुबेर तथा कुवेर रूपधारी वसुदेव का वर्णन पद्मसुन्दर को प्राप्त श्रीहर्ष का दाय : यदुसुन्दर तथा है। रूपसाम्य के कारण कनका उलझन में पड़ जाती नैषध चरित : है । अंगूठी उतारने से वसुदेव का यथार्थ रूप प्रकट हो नैषध चरित की पाण्डित्यपूर्ण जटिलता तथा शैली जाता है। कनका माला पहनाकर उसका वरण करती
की क्लिष्टता के कारण उत्तरवती कवि उसकी ओर उस है। सप्तम सर्ग में क्रमशः कनका तथा वसुदेव की विवाह
तरह प्रवृत्त नहीं हुए, जेसे उन्होंने कालिदास अथवा माघ पूर्व सज्जा का वर्णन है । कनका का पाणिग्रहण, विवाहोत्तर
__ के दाय को ग्रहण किया है। पद्मसुन्दर नैषध चरित भोज तथा नववधू की विदाई अष्टम सग का विषय है। के गणों (2) पर मुग्ध थे पर उसका विशाल आकार उनके षड्ऋतु वर्णन पर आधारित नवम् सर्ग चित्रकाव्य के ।
लिये दुस्साध्य था। अतः उन्होंने यदुसुन्दर में नैषध का चमत्कार से परिपूर्ण है। दसवें सर्ग में अरिष्टपुर की।
अल्पाकार संस्करण प्रस्तुत करने का गम्भीर उद्योग किया राजकुमारी रोहिणी स्वयंवर में अन्य राजाओं को छोड़
है। कथानक की परिकल्पना और विनियोग में पद्मसुन्दर कर, विद्याबल से प्रच्छन्न वसुदेव का वरण करती है जिससे
श्रीहर्ष के इतने ऋणी हैं कि यदुसुन्दर को, मित्र पात्रों से उनमें युद्ध ठन जाता है। ग्यारहवें सर्ग में नवदम्पति के ।
युक्त नैषध की प्रतिच्छाया कहना अनुचित न होगा। मथुरा में आगमन तथा सम्भोग क्रीड़ा का वर्णन है। बारहवें सर्ग में सन्ध्या, चन्द्रोदय तथा प्रभात के परम्परा- यदुसुन्दर के प्रथम सर्ग में यदुवंश की राजधानी मथुरा गत वर्णन के साथ काव्य समाप्त हो जाता है ।
का वर्णन नैषध चरित के द्वितीय सर्ग में विदर्भ की राजयदुसुन्दर की रचना यद्यपि नेषध का संक्षिप्त रूपान्तर धानी कण्डिनपुर के वर्णन से प्रेरित है। श्रीहर्ष ने नगरकरने के लिये की गयी है तथापि घटनाओं के संयोजन वर्णन के द्वारा काव्यशास्त्री नियमों को उदाहृत किया है, में पदमसन्दर अपनी सीमाओं और उद्देश्य दोनों को भूल मथरा के सामान्य वर्णन में उसकी स्वर्ग से श्रेष्ठता प्रमागये हैं। उनकी दृष्टि में स्वयंवर काव्य की सबसे णित करने की प्रवृत्ति लक्षित होती है। द्वितीय सर्ग में महत्त्वपूर्ण घटना है। काव्य के चौथाई भाग को स्वयंवर- नैषध के दो सौँ (३,७) को रूपान्तरित किया गया वर्णन पर क्षय करने का यही कारण हो सकता है। है। कनका का सौन्दर्य चित्रण स्पष्टतः दमयन्ती के नखनिस्सन्देह यह उसके आदर्शभत नेषध चरित के अत्यधिक शिख वणन (सप्तम सगे ) पर आधारित तथा उससे अत्यप्रभाव का फल है। पांच सर्गों का स्वयंवर वर्णन (१०. धिक प्रभावित है। श्रीहर्ष की भाँति पद्मसुन्दर ने भी १४) नैषध के विराट कलेवर में फिर भी किसी प्रकार राजकुमारी के विभिन्न अंगों का एकाधिक पद्यों में वर्णन खप जाता है। यदुसुन्दर में, चार सर्गों में (४-६, १०), करने की पद्धति ग्रहण की है परन्तु उसका वर्णन संक्षिप्त स्वयंवर का अनपातहीन वर्णन कवि की कथाविमुखता तथा क्रमभंग से दूषित है, हालांकि यह नैषध की शब्दाकी पराकाष्ठा है। अन्तिम सर्ग को नवदम्पति की काम- वली से भरपूर है। सर्ग के उत्तरार्द्ध में हंस का दौत्य केलियों का उद्दीपक भी मान लिया जाए, नवें सर्ग का नैषध के तृतीय सर्ग के समानान्तर प्रसंग का अनुगामी ऋतु वर्णन काव्यशास्त्रीय नियमों की खानापूर्ति के लिये है। दोनों काव्यों में हंस को, नायिका को नायक के किया गया प्रतीत होता है। दसवें सर्ग में रोहिणी के प्रति अनुरक्त करने की महत्त्वपूर्ण भूमिका सौंपी गयी है स्वयंवर का चित्रण सर्वथा अनावश्यक है। यह वसुदेव के जिसके फलस्वरूप वह अपने प्रेमी के सान्निध्य के लिये रणशौर्य को उजागर करने की दृष्टि से किया गया है जो अधीर हो जाती है। दोनों काव्य में हंसों के तर्क समान महाकाव्य के नायक के लिये आवश्यक है। ये सभी सर्ग हैं तथा वे अन्ततः नायकों को दौत्य की सफलता से अवकथानक के स्वाभाविक अवयव न होकर बलात चिपकाये गत करते हैं। तृतीय सर्ग में पद्मसुन्दर ने नैषध चरित गये प्रतीत होते हैं। इन्होंने काव्य का आधा भाग हड़प के पूरे पाँच विशालकाय सर्गों को संक्षिप्त करने का घनलिया है । यदुसुन्दर का मूल कथानक शेष छः सर्गों तक घोर परिश्रम किया है। कनका के पूर्वराग के चित्रण पर सीमित है।
दमयन्ती के विप्रलम्भ-वर्णन (चतुर्थ सर्ग) का इतना
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