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________________ १६ __ आ. शांतिसागर जन्मशताद्वि स्मृतिग्रंथ नर-नारकादि पर्यायें प्रसिद्ध ही है। जीवद्रव्य में कर्म के उदय आदि की अपेक्षाबिना लिए सहज ही चैतन्यानुविधायी परिणाम पाया जाता है जिसे पारणामिक भाव कहते हैं । यह चैतन्य शक्ति जीवमें अनादि निधन है । इसके विशेष परिणमन कर्म के उदयादि की अपेक्षा होते हैं अतः उन्हें औदयिक भाव कहते हैं, उपशम दशामें औपशमिक, तथा क्षयोपशम दशामें क्षायोपशमिक भाव, तथा कर्मक्षय होनेपर प्रकट होनेवाले चैतन्य की केवलज्ञानादि रूप पर्याय को क्षायिक पर्याय कहते हैं। गाथा ५६-५७ में इसका स्पष्ट विवेचन ग्रन्थकार ने स्वयं किया है । सारांश यह है कि, जीवद्रव्य अनादि से कर्म संयुक्त अवस्था के कारण संसारी है और कर्मसंयोग को दूर करने पर वही मुक्त या परमात्मा बन जाता है । ___ जो संसारी प्राणी अपनी मुक्त (स्वतन्त्र-निर्बध ) दशा को प्राप्त करना चाहते हैं उन्हें सर्वप्रथम जिनेन्द्र की देशना के अनुसार आत्मा का असंयोगी रूप स्वभाव क्या है उसे विचार कर उसकी श्रद्धा करनी आवश्यक है । जो अपने सहज स्वभावको पहिचानकर-जानकर उसके अनुकूल आचरण करेगा वह अवश्य असंयोगी दशा (मुक्त दशा) को प्राप्त करेगा । जीवके प्रदेशभेद है और वे असंख्यात है । अतः जीवको ‘जीवास्तिकाय' के नामसे ग्रन्थ में लिखा गया है । जबतक संसारी जीव निगोदावस्था, या एकेन्द्रियावस्था में रहता है तब तक अव्यक्त रूप में कर्मादय के कारण सुखदुःखरूप को भोगता रहता है। इसे ग्रन्थकास्ने 'कर्मचेतना' कहा है किन्तु त्रसराशिस्थित जीवों के कर्म चेतना के साथ साथ 'कर्म चेतना' भी होती है। ये कर्म के फलस्वरूप रागादि रूप परिणाम के आधारपर कर्म के कार्य का संचेतन करते हुए फल भोगते है अतः इनके 'कर्म फल' चेतना कही गई। ज्ञान संचेतना सम्यग्दृष्टि जीवों के होती है ऐसा ग्रन्यान्तरों में विवेचन है तथापि सम्पूर्ण ज्ञानचेतना भनवान् सिद्धपरमेष्टी के है ऐसा पंचास्तिकाय गाथा ३९ में निरूपण किया । ज्ञानचेतना का अर्थ वहाँ किया गया है जो मात्र ज्ञान का संचेतन करते है । ग्रन्थकारके शब्द है पाणित्तमदिक्कंता, णाणं विदन्तिते जीवा । अर्थात् प्राणिप ने याने दश प्राणों को जो अतिक्रान्त कर हुए है अर्थात् पाँच इन्द्रिय, मन-वचनकाय-आयु-श्वासोच्छ्वास को जो पार कर चुके है ऐसे सिद्ध प्ररमात्मा ही ज्ञानचेतनावाले हैं। जहाँ यह विवेचन है कि सम्यग्दृष्टि मात्र के ज्ञानचेतना होती है वहाँ यह भी स्पष्ट किया है कि सम्यग्दृष्टि स्वसंवेदन द्वारा आत्मा का बोध करता है। पुद्गलिस्तिकाय दूसरा द्रव्य-पुद्गल द्रव्य है। यह मूर्तिक द्रव्य है, इन्द्रियगोचर है। यद्यपि सूक्ष्म पुद्गल इन्द्रिय गोचर नहीं होते तथापि वे परिणमन द्वारा जब स्थूलता प्राप्त करते हैं तब इन्द्रियों के विषयभूत हो जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211306
Book TitlePanchastikaya Samaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Jain
PublisherZ_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf
Publication Year
Total Pages8
LanguageHindi
ClassificationArticle & Agam
File Size594 KB
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