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________________ पञ्चास्तिकाय समयसार इसी प्रकार प्रत्येक पदार्थ में मूलभूत पदार्थ पर दृष्टि ( उपयोग ) हो और उस परिवर्तन शील अवस्था ओंको उस समय स्वीकार करते हुए भी दृष्टि में गौण कर दे तो वह 'द्रव्य दृष्टि ' या 'द्रव्यार्थिक नय' की दृष्टि कहलायेगी। __इसी प्रकार जब हम अपने उपयोगमें द्रव्य और पर्याय दोनों से समग्र पूर्ण वस्तुको लें तो वह 'प्रमाणदृष्टि ' कहलायेगी । प्रमाणदृष्टि (एकाग्र दृष्टि ) से पदार्थ नित्यानित्य है। पदार्थ में अवस्था भेद स्वयं स्वभाव से होता है तथा परिवर्तन में बाह्य पदार्थ की निमित्तता भी पाई जाति है। कर्तावादी सम्प्रदाय पदार्थ का तथा उसके परिणमन का कर्ता धर्ता तथा विनाशक ईश्वरको मानते है पर जैन तीर्थंकरों की दिव्यध्वनि का यह संदेश है कि ईश्वर किसी वस्तु का कर्ता हर्ता नहीं है। वह शुद्ध निरंजन निर्विकार मात्र ज्ञातादृष्टा है। पदार्थ परिणमन स्वयं करते हैं और ऐसा उनका स्वभाव है जो अनाद्यनन्त है। __ यदि पदार्थ व्यवस्था अनाद्यनन्त नहीं मानी जाय उसका कर्ता हर्ता ईश्वर को माना जाय तो ईश्वर को भी अनाद्यनन्त न माना जाकर उसका कर्ता धर्ता किसी अन्य को माना जाएगा। और उसका भी अन्य को इस प्रकार अनवस्था दोष होगा। ईश्वर को अनाद्यनन्त मानें तो पदार्थ को ही अनाद्यनन्त क्यों न माना जाय यह तर्क सुसंगत है। लोक स्वरूप यह दिखाई देनेवाला लोक छः द्रव्यके समुदाय स्वरूप है । उन द्रव्यों के नाम हैं(१) जीवद्रव्य (२) पुद्गल द्रव्य (३) धर्म द्रव्य (४) अधर्म द्रव्य (५) काल द्रव्य (६) आकाशद्रव्य । (१) जीवद्रव्य जीव द्रव्य अमूर्त (इन्द्रियगोचर ) द्रव्य है वह चैतन्यवान है, जानना देखना उसका स्वभाव है। राग-द्वेष, काम-क्रोध आदि उसके विकारभाव हैं। जो कर्म संयोगी दशा में कर्म के निमित्त को पाकर जीवमें पाए जाते हैं पर वे जीवमें स्वभाव भाव नहीं है। “गुणपर्ययवद्रव्यम्" द्रव्यके इस लक्षण के अनुसार जीवद्रव्य अनन्तगुणोंकी स्थिति है, तथा पर्याय परिवर्तन (अवस्थाओंका बदलना ) अन्य द्रव्यों की तरह जीवद्रव्यमें भी होता है । कर्मसंयुक्त दशा में वे गुण दोष या विकार रूपमें पाए जाते हैं; और असंयोगी दशा (सिद्धावस्था ), में गुण गुणरूप में या स्वभावपर्यायरूप में पाए जाते हैं । इस जीवके साथ पौद्गलिक कर्मों का सम्बन्ध अनादि से है। इसलिए उसकी संसारी दशा, विकारी दशा या दुःखमय दशा चली आरही है। इस अवस्था में सामान्यतया एकपना होनेपर भी अनेक भेद है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211306
Book TitlePanchastikaya Samaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Jain
PublisherZ_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf
Publication Year
Total Pages8
LanguageHindi
ClassificationArticle & Agam
File Size594 KB
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