Book Title: Panchastikaya Samaysara Author(s): Jaganmohanlal Jain Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf View full book textPage 1
________________ पञ्चास्तिकाय समयसार जगन्मोहनलालजी शास्त्री, कटनी (म. प्र.) इस पंचम कालमें श्री. कुन्द कुन्द आचार्य का नाम सभी दिगम्बर जैनाचार्यों ने बड़े आदर के साथ स्मरण किया है। इन्हें भगवान् कुन्द कुन्द ऐसा आदर वाचक शब्द लगाकर अपनी आन्तरिक प्रगाढ़ श्रद्धा ग्रंथकारों ने प्रकट की है। यह विदित वृत्त है कि श्री कुन्दकुन्दाचार्य विदेह क्षेत्र स्थित श्री १००८ भगवान् सीमंधर प्रथम तीर्थंकर के समवशरण में गये थे और उनका प्रत्यक्ष उपदेश श्रवण किया था। इस वृत्त के आधार पर भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य की प्रामाणिकता में अभिवृद्धि ही होती है । भगवान् महावीर के मुक्तिगमन के पश्चात् गौतमगधर और गौतम की मुक्तिके बाद सुधर्माचार्य तथा तदनंतर श्री जबूस्वामी संघके अधिनायक हुए। ये तीनों केवली हुए, इनके पश्चात् जो श्रुत के पारगामी संघ की परंपरा में अधिनायक हुए उनमें केवली न होकर श्रुत केवली हुए वे श्रुत केवलीयों के बाद जो संघ भारके धारक हुये वे कतिचित अंगके धारक हुए। ___इस परम्परासे प्रथम श्रुतस्कंध की उत्पत्ति श्रीधरसेनाचार्य से जो षट्खण्डागम रूपमें (श्री आचार्य भूतबली पुष्पदंतद्वारा रचित) सामने आई। ___ द्वितीय श्रुतस्कंध की उत्पत्ति श्री गुणधर आचार्य से है । इन्हें पंचम पूर्व ज्ञानप्रवाद के दशमवस्तु के तृतीय प्राभूतकी साथ थी । उस विषय का ज्ञान श्रुत परम्परासे श्री कुन्दकुन्द देवको प्राप्त हुआ। ____ आचार्य श्री कुन्दकुन्दने समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, पञ्चास्तिकाय आदि ग्रंथ रचे जिनमें यह पञ्चास्तिकाय है। इस ग्रंथमें शुद्ध द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा वस्तुस्वरूप कथन की मुख्यता है। सारांश यह कि. ग्रंथमें जो जिन द्रव्योंका वर्णन है वह शुद्ध-द्रव्यार्थिक-नयसे है । पर्याय की विद्यमानता होते हुए दृष्टि में और कथन में वह गौण है। यह विश्व अनाद्यनन्त है । इसकी मूलभूत वस्तु न उत्पन्न है और न उसका कभी विनाश होता है। उसे ही द्रव्य कहते हैं । ऐसा होनेपर भी प्रत्येक द्रव्य (मूलभूत वस्तु) सदा रहते हुए भी सदा एक अवस्था में नहीं रहती। उसकी अवस्था सदा बदलती रहती है । अवस्थाओं को देखें, मूलभूत वस्तु को न देखें यदि हम अपने ज्ञानोपयोग की यह अवस्था कुछ समय को बनालें, तो उस समय हमारी दृष्टि 'पर्यायदृष्टि ' कहलायेगी, प्रकारान्तर से उसे 'पर्यायार्थिक नय' की दृष्टि कहा जायगा । १४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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