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आचार्य नेमिचन्द्रसूरि और उनके पत्थ
इसके बाद देवेन्द्रगणि के किसी शिष्य का उल्लेख नहीं मिलता है । इस गुरु-परम्परा का स्पष्टीकरण पं०मुनिधी पुण्यविजयजी ने भी किया है, जो अनन्तनाथचरित्र को प्रशस्ति' एवं आख्यानमणिकोश की प्रशस्ति' के आधार पर है।
ग्रन्थकार का लाघव - देवेन्द्रगणि ने अपनी गुरु- परम्परा के उपरान्त अपना लाघव प्रकट करते हुए इस प्रकार मंगलाचरण किया है
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विद्वानों को आनन्द देने वाले तथा अन्य कथाओं के उपस्थित रहने पर भी यह जानते हुए कि विद्वानों के लिए यह कथा हास्य का पात्र होगी।
क्योंकि कलहंस की गति के विलास के साथ निर्लज्ज कोए का संचरण इस संसार में निश्चित रूप से हास्य का पात्र होता है । *
किन्तु ये सज्जन रूपी रत्न हास्य के योग्य वस्तुओं पर भी कभी नहीं हँसते हैं । अपितु गुणों के आराधक होने के कारण उसकी प्रशंसा करते हैं ।
केवल इस बल के कारण से काव्य के विधान को न जानते हुए उनका अनुसरण करने के लिए मैंने काव्य का अभ्यास किया हैं ।
उनका अनुग्रह मानते हुए गुणों से रहित इस कथा को दक्षिण समुद्र जैसे सज्जन लोग सुनें और ग्रहण करें तथा इसके दोष समूह का संशोधन कर दें । ७
प्रति
प्रद्युम्नमूरि के शिष्य धर्म के जानकार एवं सज्जनता के साथ जसदेवगण के द्वारा इसकी प्रथम की गयी है। 5
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१. अनन्तनाहचरियं ( अप्रकाशित) की गाथा नं० १ १८ उद्धृत आ० म० को० भूमिका, पृ० १२-१३
२. आख्यानमणिकोश प्रशस्ति, पृ० २६६
३. आनंदियाविउसासु अन्नासु कहासु विज्जमाणिसु ।
एसा हसठाणं जणतेणावि विउसाणं ॥ १७ ॥
४. कलहंसगइविलासेण संचरंतो हु घट्टबलिपुट्ठो ।
हासट्ठाणं जायइ जणंमि निस्संसयं जेण ॥ १८ ॥ ५. किंतु इह सुयण रयणा हासोचिवयमवि हसंति न कयाइ ।
यद्यपि उपर्युक्त मंगलाचरण में कवि ने अपना लाघव प्रकट किया है, किन्तु उनके ग्रन्थों के अनुशीलन से यह स्पष्ट है कि वे बहुत बड़े कवि और विद्वान् कलाकार थे ।
समय एवं स्थान- आचार्य नेमिचन्द्रसूरि (देवेन्द्रगणि) का समय विक्रम की १२वीं शती माना जाता है। इनकी प्रथम रचना आख्यानमणिकोश एवं अन्तिम रचना महावीरचरियं मिलती हैं जो क्रमशः लगभग वि० सं० ११२६ एवं वि० सं० १९४६ में लिखी गयी हैं ।
अविय कुति महग्यं गुणाणामारोहत्थ ॥ १६ ॥ ६. इह बलिवकारेणं व्यविहाणमि जायवसणेण ।
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भासो विहिओ (एसा कहिया रया) तेणपाणी सरणत्वं ।। २० ।।
७. ताणुग्गहं कुणंता, सुणंतु गिण्हंतु निग्गुणिम्पि इमं । सोहंतु दोसजालं दक्खिण महोयहो पणा ।। २१ ।। ८. पज्जुनसूरिणो धम्मनतुएणं तु सुणणु साणिणं । गणिणा जसदेवेणं उद्धरिया एत्थ
पढमपई ॥ २३ ॥
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उद्धत
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