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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड
इन दोनों ग्रन्थों का शताब्दियों से अनुमान लगाया जाता है कि इनका समय एवं रचनाकाल विक्रम सं० १२वीं शताब्दी रहा है ।"
आचार्य नेमिचन्द्रसूरि कहाँ के रहने वाले थे, इसके सम्बन्ध में कोई ठोस प्रमाण इनकी रचनाओं में - नहीं मिलते हैं । केवल इनकी रचना रयणचूड़चरियं की प्रशस्ति में यह संकेत दिया गया है कि यह रचना डिडिलपद निवेश में प्रारम्भ की थी तथा चड्डावलीपुरी में समाप्त की थी । "
डावलीपुरी को आजकल चन्द्रावती कहते हैं। उत्तराध्ययन की सुखबोधा टीका अणहिलपाटन नगर में लिखी गयी जो गुजरात में है। तुर्क (गजनवी) ने गुर्जर देश पर आक्रमण किया था सोमनाथ मन्दिर को लूटा था । विमलमंत्री ने आबू के जैन मन्दिर के निर्माण के साथ चन्द्रावती नगरी को भी बसाया था । आबू के जैनमन्दिर का निर्माण काल भी वि० सं० १२वीं शताब्दी है । अतः कवि का कार्यक्षेत्र गुजरात एवं राजस्थान रहा है।
प्रमुख रचनायें नेमिचन्द्रसूरि की छोटी-बड़ी पाँच रचनायें -
१. आख्यानमणिकोश,
३. उत्तराध्ययनवृत्ति, ५. महावीरचरिवं
२. आत्मबोधकुलक अथवा धर्मोपदेशकूलम्, ४. रत्नचूड़ कथा,
पाँच कृतियों के अतिरिक्त अन्य कोई कृति उन्होंने नहीं लिखी उनकी रचनाओं का आख्यानमणिकोश के वृत्तिकार आयदेवसूरि अपनी प्रशस्ति में और आम्रदेवमूरि के शिष्य नेमिचन्द्रसूरि भी अपनी अनन्तनाथचरित की प्रशस्ति में उल्लेख करते हैं । किन्तु ये दोनों आचार्य आत्मबोधकुलक का उल्लेख नहीं करते हैं । सम्भवतः मात्र २२ आर्याछन्द में रची गयी यह लघुतम कृति उनकी दृष्टि में साधारण सी रही हो । अतः दोनों ने उसे उल्लेख योग्य न समझा हो । आख्यानमणिकोस की अन्त्य गाथा का उत्तरार्द्ध और आत्मबोधकुलक की अन्त्यगाथा के उत्तरार्द्ध को देखते हुए ऐसा फलित होता है कि दोनों का कर्ता एक ही होना चाहिए। इसलिए इस लघु कृति को भी उनकी लघु कृतियों में शामिल किया है। नेमिचन्द्रसूरि ( देवेन्द्र गणी) के प्रमुख ग्रन्थों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार प्राप्त होता है
१. जैन साहित्य का बृहद इतिहास, भाग-५, गुलाबचन्द चौधरी, पी० वी० शोध संस्थान, वाराणसी, पृ० १२. २. डिडिलबद्धनिवेसे पारद्धा संठिएण सम्मता ।
चडाव लिपुरोए
एसा फगुणच मासे ।।
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रणचूड १०६७ संशोधक विजयकुमुदरि, १९४२, प्रकाशक उपागच्छ जैन संघ, बंभात १९४२. २. जैन साहित्य नो इतिहास मोहनलाल दलीचंद देसाई, प्रकाशक जैन श्वेताम्बर कान्फ्रेन्स, बोम्बे, १९३३ ई०. पृ० ३३१, टीका नं० २६२.
४. आख्यानमणिकोश की प्रस्तावना, पृ० ७, संशोधक - मु० पुण्यविजयजी, प्राकृतग्रन्थ परिषद, वाराणसी, १९६२ ई० २. श्री नेमिचन्द्रसूरियः कर्त्ता प्रस्तुतप्रकरणस्य |
सर्वज्ञागमपरमार्थवेदिनामग्रणी: कृतिनाम् ॥ अन्यां च सुखवागमां यः कृतवानुत्तराध्ययनवृत्तिम् । लघुवीरचरितमय रत्नचूडचरितं च चतुरमतिः । पृ० ३७६
६. सिरिनेमिचन्द्रसूरि पढमो तेरियं न केवलाणं पि ।
अवराण वि समय सहस्सदेसयाणं मुणिदाणं ॥ जेण लधीरचरियं रद्दयं तह उत्तरायणविति ।
अक्खाणं यं मणिकोशो य रयणचूडो य ललियपओ ।। पृ० १२. ७. पुण्यविजयजी की भूमिका, पृ० ७.
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