Book Title: Nemichandra suri aur unke Granth
Author(s): Hukamchand Jain
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf

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Page 1
________________ -.-.-.-.-.-.-.-. -. -. -.-.-.-.-.-.-.-.-. -.-. -. -.-. -.-.-.- -.. आचार्य नेमिचन्द्रसूरि और उनके ग्रन्थ - श्री हुकमचन्द जैन, शोध छात्र, जैन विद्या एवं प्राकृत विभाग, उदयपुर विश्वविद्यालय, उदयपुर प्राकृत कथा साहित्य में संघदास एवं धर्मदास गणीकृत वसुदेवहिण्डी, हरिभद्रसूरिकृत समराइच्चकहा "एवं धूर्ताख्यान, उद्योतनसूरिकृत कुवलयमाला, जिनेश्वरसूरि द्वारा निर्वाण लीलावती कथा तथा कथाकोशप्रकरण, जिनचन्द्रकृत संवेगरंगमाला, महेश्वरसूरिकृत णाणपंचमीकहा, देवभद्रसूरि या गुणचन्द्र का कहारयणकोश, महेन्द्रसूरिकृत नखमयासुन्दरीकहा, सोमप्रभसूरीकृत कुमारपाल-प्रतिबोध आदि कथाएँ लिखी गयी हैं । प्राकृत साहित्य में विभिन्न कथाकार हुए हैं उनमें नेमिचन्द्रसूरि प्रसिद्ध कथाकार एवं चरित साहित्य के रचयिता हुए हैं। गुरु-परम्परा-आचार्य नेमिचन्द्रसूरि चन्द्रकुल के बृहद्गच्छीय उद्योतनसूरि के प्रणिष्य और आम्रदेव उपाध्याय के शिष्य थे। आचार्य पद प्राप्त करने के पहले इनका नाम देवेन्द्रगणि था। ये मुनि चन्द्रसूरि के धर्म-सहोदर थे।' उत्तराध्ययन को सुखबोधा टीका की वृत्ति के अन्त के प्रशस्ति-वर्णन में नेमिचन्द्र के गच्छ गुरु, गुरुभ्राता आदि का उल्लेख है। आख्यान मणिकोश की प्रस्तावना में इनकी गुरु-परम्परा का उल्लेख मिलता है । किन्तु अधिक स्पष्ट गुरुपरम्परा वर्णन रयणचूड़चरियं में मिलता है। रयणचूड़ में वणित गुरु-परम्परा प्रशस्ति की मूल गाथाओं के निम्नांकित अनुवाद से ग्रन्थकार की गुरु-परम्परा अधिक स्पष्ट हो जाती है। __ पालन करने में कठिन शील के सभी अंगों और गुणों की धुरा को धारण करने वाले तथा हमेशा विहार करने में प्रयत्नशील श्री देवसूरि हैं। पट्टधर पृथ्वीमंडल पर प्रसारित निर्मल कीति वाले विमलचित, कठिनता से धारण किये जाने वाले श्रमण के गुणों को ग्रहण करने में धुरन्धर भाव को प्राप्त तथा सौम्य शरीर एवं सौम्य दृष्टि वाले श्रीउद्योतनसूरि हुए। १. (अ) श्रीबृहद्गच्छीय श्रीउद्योतनसूरिप्रवरशिष्योपाध्याय श्रीआम्रदेवस्य शिष्याः प्रथमनाधेय श्रीदेवेन्द्रगणिवराः पश्चादाप्त सूरिपदेन श्रीनेमिचन्द्रनामधेय सूरिप्रवरा: श्रीमुनि चन्द्रसूरिधर्मसहोदराः । -विशेष-रयणचूडचरियं की प्रस्तावना, संशोधक-विजयकुमुदसूरि, १९४२ ई० (ब) प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, पृ० ३४६, डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री, प्रथम संस्करण, १९६६ ई० २. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग ३, डॉ. मोहनलाल मेहता, पृ० ४४७, पी० वी० शोध संस्थान, वाराणसी, १९६७ ई. ३. आख्यान मणिकोश, नेमिचन्द्रसूरि, प्राकृत ग्रन्थ परिषद, वाराणसी, १९६२ ई. हिन्दी प्रस्तावना, पृ०६ "३" ४. आसिसिरिदेवसूरि, दुव्वहसोलंग गुणधुराधरणो। उज्जयविहारनिरओ, तगच्छे तयणं संजाओ॥ ६॥-२० चू०, . ५. (क) सिरिनेमिचन्द्रसूरि, कोमुइचंदाव्व जणमणणंदो।। तयण महिवलय पसरिय निम्मल कित्तो विमलचित्तो ॥ ७ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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