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________________ राग, द्वेष आदि से रहित आत्मोद्धार में संलग्न और संसार-सागर को तरने के लिये यत्नशील आत्मा को ही जिनेन्द्र भगवात् धर्म कहते हैं। इस धर्म के सम्बन्ध में शास्त्रोक्तियाँ इस प्रकार हैं - बावत्तरी कला कुसला पंडिय पुरसा अपंडिया चेव। सव्व कल्लाण व परंजे धम्मकलं न जाणंति॥ चाहे कोई व्यक्ति बहत्तर कलाओं में कुशल है, पण्डित है या मूर्ख है, यदि वह धर्म कला से अपरिचि है तो सभी कलाएं व्यर्थ है। अविसंवायण संपन्नयाएणं जीवे धम्मस्स आराहए भवइ। -उत्तरा २९/४६ निष्कपट व्यवहार से मनुष्य धर्म की आराधना करने वाला हो जाता है। धम्मेणं चैव वित्ति कप्पेमाणा विहरंति। -सूत्रकृताङ्ग २/२/३९ धर्मानुकूल आजीविका करने वाल ही सद्गृहस्थ है। एगा धम्मपडिया जं से आया पज्जवजाए। - स्थानाद्न १/१/४० आत्मा की विशुद्धि केवल धर्म से ही होती है। एगे रेज्ज धम्म। -प्रश्न व्याकरण २/३ चाहे तुम अकेले ही क्यों न हो ओ, धर्म का आचरण करते रहो। एवं धम्मस्स विणओ, मूलं परमो य से मोक्खो। -दशवैकालिक ९/२/२ विनय ही धर्म का मूल है और मोक्ष ही उसका अंतिम फल है। जा जा वच्चइरयणी, न सा पडिनियत्तई। धम्मं च कुणमाणस्स, सफला जंति राइओ॥ -उत्तरा १४/२५ जो रातें बीत जाती है, वे पुनः लौट कर कभी नहीं आती। बीतती हुई रातें उसी की सफल है, जो धर्म का आचरण करते हैं। एको हि धम्मो नरदेव ताणं, न विज्जई अन्नमिहेह किंचि। -उत्तरा १४/२० राजन्! एक धर्म ही मनुष्य का रक्षक है, उसके बिना मनुष्य की रक्षा करने वाला कोई नहीं। धम्ममहिंसा संम नस्थि। -भक्त परिज्ञा, ९१ अहिंसा के समान कोई धर्म नहीं है। जरा मरण वेगेण बुज्झमाणाण पाणिणं। धम्मो दीवो पइट्ठा य गई सरणमुत्तमं॥ -उत्तरा २३/६८ (१९४) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211287
Book TitleNititattva aur Jain Agam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhashmuni
PublisherZ_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf
Publication Year1992
Total Pages8
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ethics
File Size658 KB
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