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बुढ़ापे के असह्य भार से दब कर मृत्यु-नदी के जलौध में बहते हुए प्राणियों को यदि कोई सुन्दर आश्रय मिल सकता है तो वह है धर्म।
ये तो जैनागम-सागर की बुद्धि तट के समीप आई दो-चार तरंगे हैं, जिनके हमने ऊपर दर्शन किये हैं, ऐसी असंख्य धोमियो के यहाँ दर्शन किये जा सकते हैं, स्वाध्याय की तरणी पर बैठकर उन मंगलमयी तरल तरंगो को देखने के चाव की आवश्यकता है।
मोक्षनीति - मोक्ष का अर्थ है मुक्ति अर्थात् स्वतन्त्रता। हम यहाँ देखते हैं, कि प्रतिदिन अनन्त प्राणी उत्पन्न होते हैं, खाते हैं, पीते हैं, और 'जीवेत् शरदः शतम' के पाठ स्वरों में सौ वर्ष तक इस धरती पर सास लेते रहने की कामना करते है। यह भी उस अवस्था में, जबकि अपने ही कन्धों पर कितने ही शवों को ढोकर श्मशान की अग्नि में जला आते हैं। मनुष्य को पता है कि मुझे लगभग सौ साल जीना है, फिर भी वह इतना जुटाना चाहता है जिसकी सीमा न हो। यदि उसे यह पता चल जाय कि उसको हमेशा यही रहना है तो वह सारे संसार की रजिस्ट्री, सारी दुनिया के हक-हकूक अपने नाम करवा लेने के काम से भी न चूकता। .
प्रश्न है कि क्या यह आना-जाना स्वयं ही हो रहा है? अथवा इसके पीछे कोई अन्य प्रेरक शक्ति है? स्वयं कुछ हो नहीं सकता, तो फिर वह कौन सी शक्ति है, जिसकी अनियंत्रित प्रेरणा से आवागमन का चक्र निरन्तर धूम रहा है? वीतराग जिनेन्द्रों ने उस प्रेरक शक्ति का अन्वेषण कर रही लिया और कहा -'वह शक्ति कर्म भार से बंधन है, यदि कर्म-भार को उतार कर फेंक दिया जाय तो यहीं मोक्ष है।' तभी तो आत्मा को अमृतत्व-सिन्धु में स्नान कराने वाले आत्मधर्मा मुनीश्वर कहते है -
विस्सेस कम्ममोक्खो मोक्खी जिणसासणे समद्दिवो।
तम्हि कए जीवोऽवं, अणुहवई अणंतयं सोक्खं॥ सम्पूर्ण कर्मों के पाशों को तोड़कर स्वतंत्र हो जाना ही तो मोक्ष है। जिनेन्द्र भगवान् का यह आदेश है कि 'यस्य मोक्षेऽप्यनाकांक्षा स मोक्षमधि गच्छति' जिसे मोक्ष की भी आंकाक्षा नहीं, वही मोक्ष प्राप्त कर सकता है। अतः मोक्ष के लिये उस अवस्था की आवश्यकता होती है, जिसमें इच्छा निरोध नहीं, इच्छाओं का अस्तित्व ही समाप्त हो जाय इसीलिये मोक्षावस्था का वर्णन करते हुए कहा गया है
ण वि दुक्खं, ण वि सुक्खं, ण वि पीड़ा, णे व विज्जदे वाहा।
ण वि मरणं, ण वि जणणं, तत्थेव य होई निव्वा॥ ___ जहाँ दुःख नहीं, इन्द्रिय सुख नहीं, जहाँ पीड़ा नहीं, जहाँ कोई बाधा नहीं, न जन्म है, न मरण है, वहीं तो मोक्ष है।
इस अवस्था की अनुभूति के कुछ क्षण तपस्वी जीवन में भी आते हैं, उस जीवन में आनन्दोल्लास के साथ मुक्त आत्माएं कहा करती हैं -
न में मृत्युः कुतो भीतिः, न मेव्याधिः कुतो व्यथा। नाऽहं बालो न बृद्धोऽहं, न युवैतानि पुद्गले॥
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