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सतीत्त्वेन महत्वेन वृतेन विनयेन च ।
विवेकेन स्त्रियः काश्चिद् भूषयन्ति धरातलम् ॥ ज्ञानार्नव, १२ / ५८
स्त्रियाँ अपने सतीत्व से, महत्व से, आचरण की पवित्रता से, विनयशीलता और विवेक से धरातल को विभूषित करती है।
ब्राह्मी, सुन्दरी, अन्जना, अनन्तमती, दमयन्ती, चन्दना, राजीमती, एवं सीता आदि के सतीत्वमय नारीत्व पर जैन संस्कृति को गर्व है। तीर्थंकरों के मातृत्व के रूप में उनके गरिमा सिंहासन सब के लिये वन्द्य है। 'गिहीवासे वि सुव्वए' -सुव्रती रहकर गृहस्थ धर्म के पालन का यहाँ निषेध नहीं है। यहाँ कामनीति को मर्यादा में बाँधकर रखने का आदेश है, उसे स्वच्छन्द - विहारिणी बनने से रोका जाय, यही जैन संस्कृति का ध्येय है।
धर्म नीति धर्म नीति के सम्बन्ध में अगर यह कहा जाय कि 'जैनागम धर्ममय हैं' -जैन साहित्य-सागर में धर्मामियों के विलास ही विलास दृष्टिगोचर होते हैं ऊर्मिमाला ही सागर है और सागर ही ऊर्मिमाला है, इस रूप में दोनों का एकत्व प्रसिद्ध है । 'उठे तो लहर है बैठे तो नीर है, लहर कहे या नीर खोय मू' की उक्ति चिरकाल से कर्ण-परिचित है।
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यद्यपि धर्म क्या है, इस प्रश्न की उत्तरमाला ओर छोर रहित हो चुकी है, फिर भी इस प्रश्न का प्रश्न-चिह्न उत्तर की प्रतीक्षा में ज्यों का त्यों खड़ा है। धर्म का परिभाषात्मक रूप स्पष्ट करने के लिये हम कहेंगे - 'दुर्गतौ प्रपतन्तमात्मानं धारयतीति धर्मः' - आत्मा को दुर्गति के गहरे गर्त में गिरने से बचाकर जो उसे धारण करता है, वही धर्म है। इसीलिये चार पुरुषार्थों में धर्म को प्रथम स्थान दिया गया है।
धर्मानुगामिनी अर्थ - नीति अनर्थकारिणी नहीं हो सकती, ध-धर्मता काम-नीति को भी बुरा नहीं कहा जा सकता है, मोक्ष की तो आधार भूमि धर्म ही है, इसलिये इसे उत्कृष्ट मंगल कहा गया है।
धम्मो मङ्गल मुक्किट्टं अहिंसा संजमोतवो।
अहिंसा, संयम और तपरूप धर्म ही सर्वोत्कृष्ट मंगल है। अहिंसा, संयम और तप से वह दिव्य चेतना जागृत होती है, जिसके प्रकाश में वस्तु तत्व प्रत्यक्ष हो उठता है। इसलिये वस्तु स्वभाव को ही धर्म बतलाते हुए कहा गया है 'वत्थु सहाचो धम्मो ।' ठीक ही है जिसने वस्तु स्वभाव को जान लिया है, उष्णता अग्नि का स्वभाव है, वहीं उसका धर्म है, इस धर्म से रहित अग्नि हम कहीं भी नहीं पा सकते। मनुष्य का स्वभाव विवेक है - ज्ञान है। विवेक से ही वह हेय उपादेय को जान सकता है। हेय का त्याग कर सकता है और उपादेय को ग्रहण कर सकता है, अतः विवेकवान ही मनुष्य है। विवेकहीन मानवता के पावन सिंहासन पर बैठने का अधिकारी ही नहीं है। मनुष्य शब्द द्वारा हम जिससे परिचित है, वह हाड़-मांस का ढाँचा ही नहीं है, वह भी हाथों वाले इस पौगलिक देह में रहने वाला आत्मा है। वह आत्मा ही धर्म है।
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अप्पा अप्पम रओ, रायादिसू सयलदोस परिचत्तो । संसारतरणहेतुं धम्मोत्ति जिणेहिं णिद्दिवं ॥ भाव पाहुड़, ८३
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