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________________ नीति तत्व और जैन आगम • श्री सुभाष मुनि "सुमन" मनुष्य यहाँ जिस आयुष्य-कर्म को बांध कर आता है, उसे वह भोगना ही पड़ता है। दुनियाँ में जन्म लेने वाल को जीना ही पड़ता है, रोकर, हंसकर या समभाव से, पर तब तक जीना अनिवार्य है, जब तक जीने का विधान है। मनुष्य पैरों से चलना चाहे जब सीखे, चले या न चले, यह उसकी परिस्थितियों और इच्छा पर निर्भर है, परन्तु जन्म के क्षण से लेकर अन्तिम श्वांस तक उसे समय के सोपान पर चढ़ते ही रहना पड़ता है। नियति के इस अटल नियम को तोड़ा नही जा सकता है। जीवन-सागर की अटल गहराइयों तक पहुँच कर जीवन शास्त्र का निर्माण करने वाले तत्वदर्शी महामुनियों ने सोचा कि जीना तो सबको ही पड़ता है, परन्तु क्या कोई ऐसी कला या विद्या नहीं, जिससे मानव परिस्थितियों पर जीवन की उलझनों पर विजय प्राप्त करके हंसते-हंसते जीना सीखें। अपने इसी विचार से प्रेरित होकर उन्होंने नये-नये प्रयोग आरम्भ किये, जीवन के प्रत्येक अंग का विश्लेषण किया, जीव और जीवन के सम्बन्ध-सूत्रों की छान-बीन की, मानसिक जगत के भाव -मण्डल में होने वाली प्रत्येक क्रिया को परखा, बौद्धिक स्तरों को जाना, पहचाना और इस प्रकार सुदीर्घ, साधना के अनन्तर उस कला का आविष्कार किया, जिस कला के अभ्यास से मानव हंसते-हंसते जीये और अपनी अभीष्ट साधना से वह प्राप्त कर सके, जिसे वह प्राप्तव्य मानता है। इसी जीवन कला को वे 'नीति' कहने लगे। नीति का अर्थ है जीवन कला । Jain Education International यह सत्य है कि जीवन प्राप्तव्य की प्राप्ति में ही सुख है और सुख की शीतल छाया में स्थित मानव-सुख पर ही उल्लास जन्य हास्य की आभा छिटका करती है, परंतु प्रश्न है कि जीवन में प्राप्ततव्य क्या है ? मनुष्य क्या पाना चाहता है और इस प्रश्न के दूसरे पहलू पर विचार करके यह भी देखना होगा कि मनुष्य क्या छोड़ कर आनन्द की अनुभूति करता है। इन प्रश्नों के उत्तर खोजने में चाहे जितना समय लगा हो, परन्तु नीतिविज्ञ इस निष्कर्ष पर पहुँच ही गये कि 'धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष' ये ही जीवन के प्राप्तव्य है, शेष जो कुछ भी है वह सब इस चतुर्वर्ग की प्राप्ति के सहायक मात्र हैं । इस चतुर्वर्ग को दो भागों में बांटा गया है। एक और तो अर्थ और काम को रखा गया है और दूसरी ओर धर्म और मोक्ष को । वस्तुतः धर्म का स्थान दोनों भागों में है अतः कुछ मनीषियों ने त्रिवर्ग- भिन्नता की भी कल्पना की है। त्रिवर्ग-साधना को लोक-साधना भी कहा जा सकता है और धर्म मोक्ष को संयुक्त वर्ग को परलोक साधना । यद्यपि यह महासत्य है कि जैन साहित्य धर्म-साधना और मोक्ष साधना को ही विशेष महत्व देता है, परन्तु लोक-साधना उससे सर्वथा अछूती रही हो यह भी नहीं कहा जा सकता। हाँ, यह अवश्य कहा जा सकता है कि वैदिक संस्कृति में त्रिवर्ग-साधना अर्थात् लोक साधना मुख्य रही है और परलोक साधना गौण, यही कारण है कि वहाँ मोक्ष को बैकुण्ठ रूप में उपस्थित किया गया है और वहाँ पर भी अर्थ सुख व काम सुख की उपलब्धि स्वीकार की गई है। जैन संस्कृति मोक्ष को (१८९) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211287
Book TitleNititattva aur Jain Agam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhashmuni
PublisherZ_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf
Publication Year1992
Total Pages8
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ethics
File Size658 KB
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