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________________ प्रमुखता देती है, धर्म को उसका आधारभूत साधन स्वीकार करती है और इसीलिये अर्थ एवं काम से उदासीनता का पाठ पढ़ाती है। वात्स्यायन ने प्रजापति के द्वारा एक लाख अध्यायों वाले त्रिवर्ग-शासन के निर्माण की बात लिखी है और कहा है कि उन्हीं एक लाख अध्यायों के आधार पर प्रजा की आनन्दमयी स्थिति के लिये मनु के धर्माधिकार. वहस्पति ने अधर्माधिकार और नन्दी ने कामसत्र अर्थात कामाधिकार का निर्माण किया। इस न की व्याख्या के रूप में नारद, इन्द्र. शक्र. भरद्वाज, विशालाक्ष. भीष्म, पराशर और मन आदि महर्षियों ने अपने नीति-शास्त्रों एवं स्मृतियों को रचा। आचार्य चाणक्य इस नीति-परम्परा के कुशल पारखी, अनुभवशील त्रिवर्ग-साधक हुए। उनका अर्थशास्त्र लोक-तत्व की विशद व्याख्या है। जैन मुनीश्वर इस विषय में सर्वथा मौन रहे हो, यह तो नहीं कहा जा सकता। श्री सोमदेव सूरि (११ वीं शती) अपने नीति वाक्यामृत में “समं वा त्रिवर्ग सेवेत' (३/३) कह कर धर्म, अर्थ एवं काम की समभाव से सेवना का समर्थन करते हैं। दशवैकालिक सूत्र (नियुक्ति) में भी कहा गया है - धम्मो अत्थो कामो भिन्ने ते पिंडिया पड़िसक्ता। जिणवयणं उत्तिन्ना, असवत्ता होति नायव्वा॥ धर्म, अर्थ और काम को चाहे कोई परस्पर विरोधी मानता हो, परन्तु जिनवाणी के अनुसार तो ये जीवन अनुष्ठान में परस्पर अविरोधी है। परन्तु जैनागमों में कहीं भी अर्थ और काम की सेवनीयता का समर्थन नहीं किया गया है। जैनागमों का प्रबल पक्ष धर्म और मोक्ष ही रहे हैं, 'धम्मो मंगलमुक्किठ्ठ' कह कर धर्म को ही जीवन के लिये मंगलकारी कहा गया है। इतना अवश्य है कि बत्तीसों आगमों ने, प्रकीर्ण शास्त्रों ने, नियुक्ति, भाष्य और चूर्णिनिर्माताओं ने यथा-स्थान चतुर्वर्ग के सम्बन्ध में अपने निष्कर्ष घोषित करते हुए अपनी स्वतंत्र नीति का अपनी विलक्षण जीवन कला का परिचय दिया है। जैन साहित्य को हम धर्म और मोक्ष सम्बन्धी नीति वाक्यों का महासागर कह सकते हैं, इन दोनों के हर पहलू को जैन-दर्शन में परखा है, उसका विश्लेषण किया है और जीवन के लिये उनकी उपयोगिता पर विशद प्रकाश डाला है। सागर में जैसे नदियाँ मिलती हैं, इसी प्रकार छोटी-छोटी नदियों के रूप में इस महासागर में अर्थ और काम की सरिताएँ भी कहीं-कहीं मिलती अवश्य दिखाई देती है। जैसे - . अर्थ नीति - सर्व प्रथम अर्थ नीति को ही लीजिये, इस विषय में जैनागमों के कुछ नीति वाक्य प्रस्तुत कर रहा हूँ - लाभुत्ति न मज्जिज्जा, अलाभुत्ति न सोइज्जा। -आचाराङ्ग १-२-५ अर्थ लाभ की दशा में गर्व नहीं करना चाहिये, परन्तु उसकी अप्राप्ति पर शोक भी नहीं करना चाहिये। सव्वं जगं पर तुहं, सव्वं वावि धणं भवे। सव्वं वित्ते अप्पज्जतं, नेव ताणाय तं तव॥ -उत्तरा १४/३९ (१९०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211287
Book TitleNititattva aur Jain Agam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhashmuni
PublisherZ_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf
Publication Year1992
Total Pages8
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ethics
File Size658 KB
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