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सप्तति के अनुसार पार्श्वनाथ प्रतिमा का प्रकटीकरण होने के पश्चात् नवाङ्गी टीका रची गई थी और प्रभावक चरित्र, प्रबंधचिन्तामणि व पुरातन प्रबन्ध संग्रह के अनुसार नवाङ्गी टीका पूरी होने के बाद प्रतिमा का प्रकटन हुआ । ।
आचारांग और सूयगडांग दो आगमों पर शीलांकाचार्य की टीकाए हैं, बाकी नवांग सूत्रों पर आपने टीका लिखकर जैन शासन की महान् सेवा की है। टोकाएं बहुत ही उपयोगी और महत्त्वपूर्ण है । इनके अतिरिक्त और भी बहुत से ग्रन्थ पंचाशक वृत्ति, व कई ग्रन्थों के भाष्य बनाये थे । आपके रचित कई स्तोत्र, प्रकरणादि भी प्राप्त हैं ।
अभयदेवसूरिजी ने अनेक विद्वान तैयार किये, जिनमें से वर्द्धमान्सूरि रचित आदिनाथचरित, मनोरमा यादि प्राकृत भाषा के महत्वपूर्ण ग्रन्थ रचे हैं । श्रीजिनवल्लभ गणि को आपने आगमादि का अभ्यास करवाके बहुत ही योग्य विद्वान और कवि बना दिया। इन जिनवल्लभसूरि की प्राप्त समस्त रचनाओं का संग्रह और उनका आलोचनात्मक अध्ययन महोपाध्याय विनयसागरजी ने किया है । उनके इस शोधकार्य पर हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने उन्हें महोपाध्याय पद से विभूषित किया है।
आचार्य अभयदेवसूरि सर्वगच्छमान्य थे । उनका चरित्र खरतरगच्छ की गुर्वात्र लि-पट्टावलियों के अतिरिक्त अन्य गच्छीय प्रभाचन्द्रसूरि ने प्रभावक चरित्र में एक स्वतंत्र प्रबन्ध के रूप में ग्रथित किया है। इसी तरह तपागच्छीय सोमधर्म ने उपदेश - सप्तति में भी उनका प्रबन्ध लिखा है । पुरातन प्रबन्ध संग्रह में भी एक उनका प्रबन्ध प्रकाशित हुआ है । इन तीनों प्रकाशित प्रबन्धों के अतिरिक्त मेरुतुंगसूरि रचित स्तंभ पार्श्वनाथ चरित्र के अन्तिम प्रबन्ध में भी अभयदेवसूरि को कथा दी है । अप्रकाशित होने से उस कथा को नीचे दिया जा रहा है ।
" प्रभाव कपरम्परायां श्रीचन्द्रपच्छे श्री सुविहितशिरोवतंस बद्ध मानसूरितामा वढवाणनगरे विहारं कुर्वन्नाययौ !
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मान
सोमेश्वरस्वप्नं सोमेश्वरनामा द्विजातिः, प्रभाते वर्द्धमानसूरिरूप ईश्वरोऽयं साक्षादेष भगवानाचार्यः । इनि स्वप्नादेशप्रमाणेन प्रतिपद्यत्स्थां यात्रासम्पूर्णो मन्यआचार्यान्ति के शिष्यो जातः पादाभिषिक्तः काले जातो जिनेश्वरसूरिनामा । तस्य शिष्यः श्रीमदभयदेवसूरिनवा ङ्गवृत्तिकारः । सोऽपि कर्मोदयेन कुष्टी जातः । श्रुतदेवतादेशात् दक्षिण दिग्विभागात् धवलक्क के समात्य संप्रयात्रा श्रीस्तम्भ नायकं प्रणेतु स सूरिरागतः । ११३१ वर्षे श्री स्तम्भनायकः प्रकटीकृतः । ग्रामभट्टेन बोहावेन सहीड एष पूज्यमान: । प्रतिदिनं ग्रामभट्टकपिलया गवा निजोवस्यक्षरत् पयोधारया संजायमानस्नपनस्वरूपोऽभूत् । तदा च श्रीमदभयदेवसूरिणा जयतिहुअण द्वात्रिंशतिका सर्वजिनशाशन भक्त दैवतगण प्रौढप्रतापोदयात् गुप्तमहामन्त्राक्षरा पेढे षोडशे च काव्ये स सूरिरशोकबालकुन्तल समपुद्गल श्री : जनिस्वामी च पलाशवृक्षमूलात् आविरास । ततः शासनप्रभावको जातः । १३६८ वर्षे इदं च बिम्बं श्री स्तम्भ तीर्थे समायातो भविकानुग्रहणाय । इत्थं कालापेक्षया नानाभक्त्ये नाना नामग्राहं नानाभक्त्या पूजितोऽयं परमेश्वरः । सर्वार्थसिद्धिदाता जातस्तेषां द्वात्रिशता प्रबन्धेबद्ध श्रीस्तम्मनाथ चरितमिदं । श्री पत्र द्विषोडशो Sभूत् बन्धोऽभयदेवसूरिकथा ॥ ३२ ॥
इति अमन्य जगदानन्द दायिनि आचार्य श्री मेरुतुरंगविरचिते देवाधिदेव माहात्म्य शास्त्रे श्री स्वम्भनाथ चरित द्वात्रिंशत्प्रबन्धबन्धुरे द्वत्रिंशत्तमः प्रबन्ध: समर्थितः । समाप्त चेदं श्रीस्तम्भनाथचरितम् ।
सं० १४१३ के उपर्युक्त प्रबन्ध में स्तम्भन पार्श्वनाथ के प्रकटीकरण का समय सं० १९३१ दिया है इससे नवांगवृत्ति रचना के बाद ही यह घटना हुई - सिद्ध होता 1 अभयदेवसूरिजी का स्वर्गवास सं० १३५ या सं० १९३६ में काडवंज में हुआ । खरतरगच्छ पट्टावली के अनुसार आप
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