Book Title: Navangi vruttikar Abhaydevsuri Author(s): Agarchand Nahta Publisher: Z_Manidhari_Jinchandrasuri_Ashtam_Shatabdi_Smruti_Granth_012019.pdf View full book textPage 1
________________ नवाङ्गी - वृत्तिकार श्री अभयदेवसूरि [ अगरचंद नाहटा ] सुविहित मार्ग प्रकाशक श्री जिनेश्वरसूरिजी के दो प्रधान शिष्य थे, एक संवेगशाला प्रकरणकर्त्ता श्री जिनचन्द्रसूरि और दूसरे नवाङ्गी वृत्तिकर्त्ता श्री अभयदेवसूरि । श्री जिनेश्वरसूरिजी के पट्ट पर श्रीजिनचन्द्रसूरि और उनके पट्ट पर श्री अभयदेवसूरिजी प्रतिष्ठित हुए। आपके प्रारम्भिक जीवन के सम्बन्ध में प्रभावक चरित्र में लिखा है कि आचार्य जिनेश्वरसूरि सं० १०८० के पश्चात् जावालिपुर (जालोर) से विहार करते हुए मालव प्रदेश की राजधानी धारानगरी में पधारे। वहां आपका प्रवचन निरन्तर होता था । इसी नगरी में श्रेष्ठी महीधर नामक विचक्षण व्यापारी रहता था। उनकी पत्नी धनदेवो थी । अभयकुमार उनका सौभाग्यशाली पुत्र था। आचार्य जिनेश्वरसूरि का व्याख्यान सुने के लिए महीधर का पुत्र अभयकुमार भी आया करता था । आचार्यश्री के वैराग्यपोषक शांत रसवर्द्धक उपदेश से अभयकुमार प्रभावित हुआ और माता-पिता से अनुमति प्राप्त कर श्रीजिनेश्वरसूरि के पास दीक्षा ग्रहण की। उनका दीक्षा नाम अभयदेवमुनि रखा गया । श्री जिनेश्वरसूरि के पास ही स्व-पर शास्त्रों का विधिवत् अध्ययन अभयदेव ने किया। ज्ञानार्जन के साथ-साथ वे उग्र तपश्चर्या भी करने लगे । आपकी योग्यता और प्रतिभा को देखकर जिनेश । सूरि ने आपको संवत् १०८८ में आचार्य पद प्रदान किया । उस समय के प्रमुख प्रमुख आचार्य सैद्धान्तिक आगमों का अध्ययन छोड़कर आयुर्वेद, धनुर्वेद, ज्योतिष, सामुद्रिक, नाट्य शास्त्रादि विषयों में पारगत होते जा रहे थे | मंत्र, यंत्र और तंत्र विद्या के चमत्कारों से राजाओं व जनता पर भी उनका अच्छा प्रभाव जमता जाता था । आगमों के अभ्यास Jain Education International की परम्परा शिथिल हो जाने से बहुत से गुरु आम्नाय लुप्त हो गए और मूल पाठ भी त्रुटित और अशुद्ध होते जा रहे थे। ऐसी परिस्थिति को देख कर अभयदेवसूरि ने अपनी बहुश्रुतता का उपयोग उन आगमों पर टीकाएँ बनाने के रूप में किया । सं० ११२० से ११२८ तक यह कार्य निरन्तर चलता रहा। पाटण में आगमों को प्रतियां और चैत्यवासी आगम विज्ञ आचार्य का सहयोग सुलभ था । मध्य वर्ती समय में सं० ११२४ में आपने धवलका में रहते हुए कुल और नंदिक सेठ के घर में पंचाशक टीका बनाई । ठाणांग सूत्र से लेकर विपाक सूत्र तक नवाङ्गों की जो आपने टीका बनाई, उसका संशोधन उदारभाव से चैत्यवासी गीतार्थ द्रोणाचार्य से कराया जिससे वे सर्वमान्य हो गई । अभयदेवसूरिजी के जीवन की दूसरी घटना स्तंभन पार्श्व - नाथ प्रतिमा को प्रकट करना है । कहा गया है कि टोकाए रचने के समय अधिक परिश्रम और चिरकाल आयंबिल तप के कारण आपका शरीर व्याधिग्रस्त और जर्जरित हो गया। अनशन करने का विचार करने पर शासनदेवी ने कहा कि सेढी नदी के पार्श्ववर्ती खोखरा पलाश के नीचे भ० पार्श्वनाथ की प्रतिमा है । आपकी स्तवना से वह प्रतिमा प्रकट होगी। उस प्रतिमा के स्नात्रजल से आपकी सारी व्याधि मिट जायगी । शासनदेवी के निर्देशानुसार उन्होंने "जयतिहुअप" स्तोत्र द्वारा भ० पार्श्वनाथ की प्रतिमा प्रगट की । आज भी यह स्तोत्र प्रतिदिन खरतरगच्छ में प्रतिक्रमण में बोला जाता है । सुमतिगणि रचित गणधर सार्धशतक वृहद् वृत्ति, जिनोपालोपाध्याय कृत युगप्रधानाचार्य गुर्वावली, जिनप्रभसूरि कृत विविध तीर्थकल्प एवं सोमधर्म रचित उपदेश - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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