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आर्यारत्न हेमप्रभा श्रीजी
जन्मधारण करते हुए निरन्तर आत्मनिष्ठ होकर विकास की ओर बढ़ता जाय तो परम और चरम तत्व मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। प्रथम शैली के विभाजन से यह संसार षटद्रव्यात्मक कहा जा सकता है :
जीव अजीव (१) (२)
धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय आकाशास्तिकाय पुद्गलास्तिकाय
काल द्वितीय शैली में पुण्य एवं पाप को स्वतन्त्र तत्व न मान कर आत्मा अर्थात् जीव के आश्रित माना है। अत: तत्वों की संख्या सात ही रह जाती है। तृतीय शैली में तत्व नव माने गये हैं। इसमें से जीव एवं अजीव ये दो तत्व धर्मी हैं। अर्थात् आश्रव आदि तत्वों के आधार हैं। और शेष उनके धर्म हैं। इनको पुन:तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है :
ज्ञेय - जानने योग्य-जीव, अजीव। उपादेय = ग्रहण करने
योग्य-संवर, निर्जरा, मोक्ष। हेय = त्याग करने योग्य-आश्रव, बंध, नवतत्त्व
पुण्य, पाप। उक्त तत्वों का संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है :-- जैन दर्शन में पदार्थ या वस्तु को तत्त्व कहा गया है। लाक्षणिक १.जीव : जीव का लक्षण उपयोगअर्थात्चेतना है। उपयोग के दो अर्थ में वस्तु स्वरूप (तत् + व) होने का साथ ‘सत् से युक्त तत्त्व भेद हैं : (१) साकारोपयोग (ज्ञान) और (२) निराकारोपयोग (दर्शन) के तीन लक्षण हैं- उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य।' अर्थात् उत्पत्ति, नाश एवं अत: जिसमें ज्ञान और दर्शन रूप उपयोग पाया जाय, वह जीव है। ध्रुव गुण धारण करने वाला तत्व है। यह तत्व (सत् सहित) अनादि जीव सुख-दुःख और अनुकूलता-प्रतिकूलता की अनुभूति करने एवं अनन्त है। जो सर्वथा असत् है वह तत्व नहीं हो सकता। सार, में सक्षम है। इसीलिए इसे चेतन कहा गया है। स्व पर का ज्ञान, विवेक भाव या रहस्य को भी तत्व का पर्यायवाची कह सकते हैं परन्तु आदि गुण अन्य पदार्थों में नहीं पाये जाते हैं। जीव को सत्व, प्राणी, वास्तव में सद्भूत वस्तु को ही तत्व कहते हैं। तत्व नवीन पर्यायों की
वान पयाया का भूत, आत्मा आदि शब्दों से भी जानते हैं। उत्पत्ति एवं पुरानी अवस्था का विनाश होने पर भी अपने स्वभाव का
स्थावर जीव एकेन्द्रिय होते हैं अत: उनके चर्म अर्थात् त्वचा रूप त्याग नहीं करता।
इन्द्रिय के अतिरिक्त इन्द्रियाँ नहीं होती। जो हमारी आँखों से दिखाई आध्यात्मिक दृष्टि से आत्मा ही मुख्य तत्व है जो पूर्ण एवं शुद्ध नहीं देते. वे सक्षम हैं और जो हमें दष्टिगोचर होते हैं. वे बादर हैं। अवस्था में परमतत्व से विभूषित हो परमात्मा है और कर्मयुक्त होकर
युक्त होकर जिनको आहार, शरीर, भाषा आदि पर्याप्तियाँ पूर्ण प्राप्त हों वे पर्याप्त
जिनको आता जी संसारी रूप में विविध योनियां धारण करता है।
और जिन्हें प्राप्त न हो सके वे अपर्याप्त कहलाते हैं :तत्व को कई रूपों में वर्गीकृत एवं विभाजित किया जा सकता
वनस्पतिकाय का विभाजन इस प्रकार हैहै- प्रथम शैली-(१) जीव (२) अजीव।
बादर द्वितीय शैली-(१) जीव (२) अजीव (३) आश्रव (४) संवर (५) बंध (६) निर्जरा (७) मोक्ष। इसमें पुण्य और पाप इन दोनों को पर्याप्त अपर्याप्त प्रत्येक साधारण और जोड़ देने से नव तत्व बन जाता है।
प्रत्येक-एक शरीर में एक जीव हो। तृतीय शैली-(१) जीव (२) अजीव (३) पुण्य (४) पाप (५)
साधारण-एक औदारिक शरीर में अनन्त जीव एक साथ जन्म आश्रव (६) संवर (७) निर्जरा (८) बंध (९) मोक्ष।
लें, आहार लें और श्वासोच्छ्वास करें। इनके अनेक प्रकार हैं- जैसे उपरोक्त वर्गीकरण में भी जीव एवं अजीव मुख्य तत्व हैं जो अन्य
प्याज, आलू, रतालू, गाजर, अदरख आदि। तत्वों के आधार हैं। जीव पुद्गल (अजीव) के संयोग-वियोग से विविध विद्वत खण्ड/१८
शिक्षा-एक यशस्वी दशक
सूक्ष्म
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