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प्रत्येक वनस्पति के बारह भेद हैं१. रुक्खा (वृक्ष) दो प्रकार के होते हैं
(क) एगट्ठिया = एक गुठली वाले, जैसे-आम, नीम, जामुन, नारियल आदि।
(ख) बहुविया = बहुबीजी जैसे अमरूद, अनार, अंजीर, सीताफल आदि।
२. गुच्छा-बैगन, टोंडोरी, तुलसी आदि। ३. गुम्मा (गुल्म)-गुलाब, जूही, चम्पा, मोगरा, मरवा आदि। ४. लया (लता)-पद्म लता, अशोकलता, नागलता। ५. वल्ली (वेल) तोरइ, तुम्बी, करेला, अंगूर।
पव्वगा (गांठ में बीज)-गन्ना, वेंत आदि। ७. तणा (तृण)-दूब, कुश।
वलया (गोलाकार)- तमाल, नारियल, खजूर। ९. हरिया (हरी, काम वाली शाक भाजी)-मेथी, पालक,
बथुआ। १०. जलरूहा (जल में उत्पन्न होने वाली वनस्पति)-उत्पल,
कमल, पुंडरीक कमल, सिंघाड़ा। १२. कुहणा = पृथ्वी को फोड़कर पैदा होनेवाली वनस्पति
जैसे- भंफोड़ा आदि। द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के जीव त्रस कहलाते हैं। चूँकि ये जीव अपने हिताहित हेतु स्थान परिवर्तन करते हैं अत: गतिशील हैं और त्रस कहे जाते हैं। त्रस के भेद इस प्रकार हैं
१. द्वीन्द्रिय-स्पर्श (शरीर) एवं रसन (जीभ) इन्द्रियों वाले जीव जैसे लट, शंख, जोंक आदि।
२. त्रीन्द्रिय-स्पर्श, रसन एवं ध्राण इन्द्रियों से युक्त जीव जैसे-जूं, लीख, कीड़ी, चींटी आदि।
३. चतुरीन्द्रिय-स्पर्श, रसन, धाण एवं चक्षु इन्द्रियों वाले जीव जैसे मक्खी, मच्छर, बिच्छू, भंवरा आदि।
४. पंचेन्द्रिय-स्पर्श, रसन, घ्राण, चक्षु एवं श्रोत्र इन पाँचों इन्द्रियों वाले जीव जैसे पशु-पक्षी, मनुष्य, नारक एवं देवता।
एकेन्द्रिय से चतुरीन्द्रिय तक के जीव (तिर्यंच) मन रहित होते हैं अत: असंज्ञी (अमनस्क) कहलाते हैं और पंचेन्द्रिय तिर्यंच मन वाले होने से संज्ञी कहलाते हैं। इसी प्रकार गर्भज मनुष्य,
औपपातिकदेव और नारक जीव भी मन वाले होने के कारण संज्ञी कहलाते हैं। तिर्यच पंचेन्द्रिय जीवों के पाँच प्रकार हैं
१. जलचर-जल में रहने वाले जीव जैसे मछली, कछुए, मगर, ग्राह।
२. स्थलचर (क) ठोसखुर वाले (एगखुरा) घोड़ा, गधा। (ख) दो खुर वाले (बिखुरा) भैंस, बकरी, ऊँट। (ग) कई खुर वाले (गंडीपया) हाथी। (घ) सण्णफया = नख वाले पंजे जैसे सिंह, चीता, बिल्ली,
कुत्ता। ३. नभचर-आकाश में उड़ने वाले। (क) चर्मपक्षी-झिल्लीदार पंख। चिमगादड़, भारंड पक्षी। (ख) रोमपक्षी-रोंए के पंख। चिड़िया, कबूतर, मोर, तोता,
मैना। (ग) समुग्ग पक्षी-डिब्बे की तरह बंद पंख वाले। (घ) वितत पक्षी-सदा पंख खुले हुए। समुग्ग पक्षी और वितत पक्षी अढाई द्वीप में नहीं होते हैं। ४. उर सरि सर्प (छाती के बल चलने वाली सर्प जाति) (क) अहि (अ) फण करने वाले-आशी विष, उग्र विष आदि।
(आ) फण नहीं करने वाले-दिव्वागा, गोणसा। (ख) निगल सकने वाले-अजगर। (ग) असालिया-गाँव या नगर का नाश करने वाले। (घ) महोरग (अढाई द्वीप के बाहर)। (ङ) भुजपरिसर्प-भुजा से चलने वाले जैसे नेवला, चूहा,
छिपकली आदि। ज्ञातव्य है कि जैन दर्शन में जीवों का वैज्ञानिक और विस्तृत वर्गीकरण किया गया है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों में वनस्पति के बारे में वैज्ञानिक विश्लेषण के बाद आज सभी मानते हैं कि वनस्पति में भी जान है परन्तु शताब्दियों पूर्व पेड़-पौधों में चेतना बताकर प्रभु महावीर ने हमें अहिंसा का महत्व बताया था। इसी प्रकार नारक जीवों के भेद, मनुष्य व देवता के भी भेद बताकर जीव का स्वरूप बताया गया है। अजीव
अजीव को जड़ और अचेतन भी कहते हैं। जो चेतना रहित है और सुख-दुःख की अनुभूति नहीं करता, उसे अजीव कहते हैं। इनमें मूर्त और भौतिक पदार्थ जैसे चूना, चाँदी, सोना, ईंट आदि और अमूर्त तथा अभौतिक पदार्थ जैसे काल, धर्मास्तिकाय आदि का समावेश हो जाता है।
अजीव के पाँच भेद हैं
१. पुद्गल-जो स्पर्श, गंध, रस एवं वर्ण से युक्त हों और पूरण तथा गलन पर्यायों से युक्त हों, पुद्गल हैं। परस्पर मिलना, बिखरना, सड़ना, गलना आदि पुद्गल की क्रियाएँ हैं।
शिक्षा-एक यशस्वी दशक
विद्वत खण्ड/१९
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