________________ 42 कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड . - . - . -. -. - . -. -. -. -. -. झालोर' तथा चित्तौड़ के आक्रमण के समय भी दिखाई देती है। हमारा लेखक हमें सूचित करता है कि जब शत्रुओं ने खाइयों को लकड़ी व घास से पाटने का प्रयत्न किया तो हम्मीर के सैनिकों ने अग्नि के गोलों से खाई की लकड़ी आदि को भस्म कर दिया और सुरंगों में लाख से मिला हुआ उबलता तेल डालकर शत्रु सेना को भस्मसात् कर दिया / इसी सर्ग के अन्तिम भाग में कवि ने पराजय के समय अपनाये जाने वाले प्रयोगों का भी वर्णन किया है / जब किसी प्रकार दुर्ग की रक्षा किया जाना सम्भव प्रतीत नहीं हुआ तो हम्मीर ने अपना दरबार लगाया, नाच-गान की व्यवस्था की और सभी अन्तिम बलिदान के लिए कटिबद्ध हो गये। यहाँ दरबार के लगने तथा रंभा के नृत्य के आयोजन के वर्णन में लेखक राजपूत-मनोवृत्ति का समुचित चित्रण करता है। ऐसे अवसर पर बलिदान के संकल्प की तुलना में सांसारिक सुखों को कोई स्थान राजपूत सैन्य व्यवस्था में नहीं है। आभूषण, द्रव्य, अन्न आदि के भण्डारों को सहर्ष नष्ट करने में एक राजपूत नहीं हिचकता / यहाँ तक कि हाथियों के मस्तक भी काट दिये जाते हैं जिससे शत्रु के हाथ कुछ न पड़े। इस अवसर पर रानियाँ तथा राजकुमारियां चिता में प्रवेश कर 'जौहर' व्रत का पालन करती हैं और बचे हुए रणवीर दुर्ग के फाटक खोलकर युद्ध में उतर जाते हैं। जौहर की भीषण ज्वाला के माथ युद्ध की प्रगति भयंकर रूप धारण करती है और एक-एक सैनिक युद्ध में नष्ट होकर अपने जीवन को सफल बनाता है। इस युद्ध-कौशल के वर्णन से ऐसा प्रतीत होता है कि नयचन्द्र सूरि अपने समय तक प्रचलित युद्ध पद्धति से भली-भांति परिचित था / सम्भवत: चौहान ह्रास के साथ यह पद्धति आगे चलकर नया मोड़ लेती है। दुर्ग की रक्षा में सर्वनाश की स्थिति में मर-मिटने की परम्परा यहाँ से आगे चलकर समाप्त होती है, जिससे हमारा कवि परिचित नहीं था। राजपूतों का आगे का इतिहास इस बात का प्रमाण है कि दो विभिन्न मोचों को बनाकर युद्धस्थल से बचकर निकलने तथा शत्रु दल को छकाने की व्यवस्था इस बलिदान से बाद राजपूत सीख चुके थे। कामरान के साथ होने वाले जैतसी का युद्ध तथा हल्दीघाटी में लड़े जाने वाले युद्ध में राणा प्रताप का बचकर निकलना एवं युद्ध की प्रगति को बनाये रखना और युद्ध काल को लम्बा कर विजयी होने की युक्ति निकालना इस परम्परागत युद्ध-शैली को छोड़ना सिद्ध करती है / मुगलों के साथ होने वाले आगे के युद्ध इस स्थिति को अधिक स्पष्ट कर देते हैं। औरंगजेब के समय सीसोदिया-राठौड़ संघ के 1680-1681 ई. आक्रमण और प्रत्याक्रमण की कहानियां भी नई युद्ध शैली की गति-विधि के अच्छे प्रमाण हैं। 1. कान्हड़दे प्रबन्ध, प्र० 4, प० 45. 2. अमरकाव्य वंशावली, पत्र 38 क. 3. हम्मीर महाकाव्य सर्ग 13, श्लोक 36-47. 4. वही, सर्ग 13, श्लोक 1-38. 5. हम्मीरकाव्य, सर्ग 13, श्लोक 168-186 ; हम्मीरायण, पृ० 131; फतूहात, 267 ; केम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ इण्डिया, भाग 3, पृ० 517 ; हरविलास, हम्मीर, पृ० 44 ; लाल-हिस्ट्री ऑफ खिलजीज, पृ० 63-64. 6, राव जैतसी रो छन्द. 7. अमरकाव्य वंशावली, पत्र 44 ; अकबरनामा, भा० 3, पृ० 166. 8. मासिर-ए-आलमगीरी, पृ० 165-66 ; राजविलास, सर्ग 11-14. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org