Book Title: Naychandra surikrut Hammir Mahakavya aur Sainya Vayvastha Author(s): Gopinath Sharma Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf View full book textPage 1
________________ 00000 0 00000000000000000000000000000.0.00.0.0.. नयचन्द्रसूरिकृत-हम्मीर महाकाव्य और सैन्य-व्यवस्था D डॉ. गोपीनाथ शर्मा, (भूतपूर्व) प्रोफेसर, इतिहास, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर] हम्मीर महाकाव्य की रचना नयचन्द्रसूरि ने चौदहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण के आस-पास की थी। इस काव्य में पृथ्वीराज तथा हम्मीर के रणकौशल का परिचय मिलता है। वैसे तो कवि इन दोनों महावीरों का समकालीन नहीं है, परन्तु घटनाओं के अध्ययन से स्पष्ट है कि कवि ने लोकवार्ताओं और संस्मृतियों के आधार पर घटनाओं को लेखबद्ध किया था । इसके अतिरिक्त कवि के समय तथा हम्मीर के समय में कोई विशेष अन्तर नहीं रह जाता है, जबकि ऐतिहासिक विषयों से प्रेम रखने वाला लेखक इनके बारे में अपने बाल्यकाल से उन्हें समकालीन व्यक्तियों से, जो उस समय तक रहे हों, सुनता रहा हो । जिन घटनाओं का उल्लेख हमारा लेखक करता है उनका वर्णन फारसी तवारीखों में में भी मूल रूप से मिलता है जिससे कवि-वणित सैन्य व्यवस्था में सन्देह के लिए स्थान अधिक नहीं रहता। इस काव्य के तीसरे सर्ग में लगभग १०० पद्यों में पृथ्वीराज का वर्णन दिया गया है जिनमें पृथ्वीराज के चरित्र एवं उसके शहाबुद्दीन गौरी के साथ किये गये युद्ध का विवरण दिया गया है। प्रथम तराइन के युद्ध ११६०-११६१ ई० से स्पष्ट है कि राजपूत युद्ध प्रणाली में सम्पूर्ण दल से शत्रुओं पर एक साथ आक्रमण करना होता था। यदि यह आक्रमण शन को तत्क्षण विथकित कर देता तो राजपूतों की विजय हो जाती थी। इस युद्ध में पृथ्वीराज की सम्पूर्ण सेना का दबाव इतना प्रबल था कि शत्रुओं के पाँव उखड़ गये। इस गतिविधि का फारसी तवारीखों में भी उल्लेख मिलता है। संभवत: इस प्रणाली से गौरी अवगत नहीं था । यही कारण था कि उसे युद्धस्थल से भागना पड़ा। परन्तु इसी युद्धशैली के साथ नय चन्द्र हमें इस व्यवस्था के दोष की ओर भी संकेत करता है। वह यह है कि पृथ्वीराज ने इस विजय के बाद कभी आस-पास के प्रदेशों में मोर्चाबन्दी का कोई प्रबन्ध नहीं किया। इसी प्रकार उसने इन निकटवर्ती प्रदेशों के निवासियों से राजनीतिक सम्बन्ध भी स्थापित नहीं किये । इसका फल यह हुआ कि जब शहाबुद्दीन गौरी दुबारा भारतवर्ष में आया तो वह खर्पर, लंगार, भिल्ल आदि अर्द्धसभ्य जातियों को अपनी ओर मिलाने में सफल हआ। इन जातियों के प्रदेश की रसद और उनका सहयोग विदेशी शत्रु की विजय के कारण बने । नय चन्द्र ने इस परिस्थिति को राजपूत पराजय का कारण माना है। दूसरे तराइन के युद्ध में ११९१ ई० गौरी अपनी पूरी शक्ति एक साथ प्रयोग में नहीं लाता, जबकि पृथ्वीराज १. हम्मीर महाकाव्य, एक पर्यालोचन, पृ० २८. २. फरिश्ता के अनुसार उसकी सेना में दो लाख अश्वारोही एवं तीस हजार हाथी थे।-भा० १, पृ. ५ व ७ । इस संख्या में हमें सन्देह है। ३. तबकात-ए-नासिरी, पृ० ४६०,४६३, ४६४. ४. हम्मीर महाकाव्य, सर्ग ३, श्लोक १८-४६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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