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अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर
जैन-दर्शन में काल चक्र के १२ विभाग है जबकि वैदिक चिंतन में १४ विभाग हैं; इस का कारण आरंभ और मध्य बिंदु है जो वैदिक मन्वंतर विज्ञान के १४ विभागों को समक्ष रखता है।
इसी संदर्भ में एक तथ्य यह है कि यहाँ पक रेखीय काल गति (जो प्रत्येक विभाग में है) भी है और चक्रीय भी जहाँ तक आदर्शन चक्र का प्रश्न है, रेखीय और चक्रीय गतियाँ सापेक्ष हैं. उन्हें मेरे विचार से निरपेक्ष नहीं माना जा सकता है। वे मानव अनुभव और विश्व संरचना में सापेक्ष हैं।
अतः उपर्युक्त विवेचन के अनुसार जैन-दर्शन में काल की अवधारणा का एक व्यापक भौतिक आधार है जो मनुष्य क्षेत्रीय एवं ज्योतिष क्षेत्रीय काल-रूपों को सापेक्ष रूप में प्रस्तुत करता है, और काल के निरंतर गतिशील रूप या आवर्तन को समक्ष रखता है जो मेरे विचार से भारतीय चिंतनधारा की एक महत्त्वपूर्ण स्थापना है। इसके अलावा, कालाणु की धारणा, काल और समय का सम्बन्ध तथा काल-चक्र का संदर्भ-ये ऐसे प्रत्यय हैं जो काल के व्यापक संदर्भ को रेखांकित करते हैं। इसी के साथ, काल गणना का रूप अपने में एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है जो आधुनिक विज्ञान का एक महत्त्वपूर्ण आयाम है।
ध्यान शब्द चिन्तनार्थक ध्यै धातु से भाव अर्थ में अन (ल्युट् ) प्रत्यय करके बनता है। जिसका यौगिक अर्थ है चिन्तन करना, याद करना। साधकों की परम्परा में ध्यान शब्द पारिभाषिक अर्थ में अर्थात् एक सुनिश्चित विशेष अर्थ में प्रयुक्त होता है। प्रस्तुत निबन्ध में उस विशेष अर्थ पर ही विचार किया जा रहा है।
योगसूत्र के लेखक महर्षि पतञ्जलि ने योग के जिन आठ अंगों की चर्चा की है, उनमें ध्यान सातवाँ अंग है, जिसकी साधना धारणा के बाद की जाती है। पतञ्जलि द्वारा दी गयी परिभाषा के अनुसार किसी आन्तर या बाह्य देश में चित्त का स्थिर करना धारणा है। (देशबन्धश्चित्तस्य धारणा यो. सू. ३.१) जब चित्त उस स्थल में कुछ काल तक स्थिर होने लग जाये तो उस स्थिति को ध्यान कहते हैं। (तत्र प्रत्यैकतानता ध्यानम् । यो. सू. ३.२ ) इस प्रकार ध्यान धारणा की उत्तरपीठिका है, बाद की स्थिति है। ध्यान के बाद समाधि की स्थिति मानी गयी है है। इस स्थिति में चित्त में इतनी एकाग्रता आ जाती है कि चित्त में अर्थमात्र ही अवभासित होता है। अर्थ के नाम, रूप आदि विकल्प चित्त से विलीन हो जाते हैं, दूसरे शब्दों में अर्थ स्वरूप शून्य होकर अवभासित होता है। समाधि के अनेक स्तर है। प्रथम स्तर में स्थूल पदार्थ में चित्त की
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जैन-दर्शन में काल को द्रव्य के रूप में ग्रहण किया गया है। और पदार्थ के सारे परिणमन एवं प्रक्रमों में 'काल एक सहकारी तत्त्व है। यह स्थापना काल को भौतिक क्रियाओं तथा परिणमनों से जोड़ती है। चेतना के स्तर पर काल का यह जागतिक भौतिक रूप एक सत्य है, तो दूसरी ओर, चेतना के ऊर्ध्व स्तर पर काल का पराजागतिक या अनंत रूप भी एक सत्य है। चिंतन की द्वन्द्वात्मक गति में काल के ये दोनों रूप सापेक्ष हैं, लेकिन यह भी एक सत्य है। कि बिना जागतिक काल के हम पराजागतिक काल की प्रतीति नहीं कर सकते। सृजन और विचार के क्षेत्र में यह सत्य है। जागतिक दिक्-काल के विम्ब वस्तुएँ और पदार्थ ही वे आधार हैं जिनके द्वारा हम पराजागतिक प्रतीतियों से साक्षात् करते हैं। इन दोनों काल रूपों में से जब हम किसी एक रूप को अधिक महत्त्व देने लगते हैं तो असंतुलन के शिकार होते हैं जो हमें विचारों के इतिहास से स्पष्ट होता है यहाँ पर भी एक सम्यक दृष्टि की आवश्यकता है।
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ध्यान योग : दृष्टि और सृष्टि
५ झ-१५, जवाहर नगर जयपुर ३०२ ००४
-स्वामी अनन्त भारती
पूर्ण एकाग्रता (निश्चलता) होती है, द्वितीय स्तर में स्थूल विषय लुप्त-सा हो जाता है, तृतीय स्तर में चित्त की स्थिरता का विषय सूक्ष्म पदार्थ परमाणु तन्मात्रा आदि होते हैं। चतुर्थ स्तर में सूक्ष्म विषय भी लुप्त हो जाता है। पंचम स्तर में केवल आनन्द की अनुभूति होती है। छठे स्तर में आनन्द भी लुप्त-सा हो जाता है। सातवें स्तर में केवल अस्मिता मात्र का अवभासन होता है। इन्हें क्रमशः संवितर्क, निर्वितर्क, सविचार, निर्विचार, सानन्दा, निरानन्दा और अस्मिता मात्र समाधि कहते हैं ये सातों समाधियाँ सम्प्रज्ञात समाधि के भेद हैं। इनके बाद असम्प्रज्ञात समाधि की स्थिति है, जिसमें ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेय किसी का भी ज्ञान नहीं रहता। इस क्रम में ध्यान चित्त की एकाग्रता की बहुत प्रारम्भिक स्थिति है।
सांख्य सूत्र में मन के निर्विषय होने को ध्यान कहा गया है। (ध्यानं निर्विषयं मनः- सांख्य सू. ६) यह स्थिति पतंजलि के स्वीकृत निर्विचार समाधि के बाद की स्थिति है। षट्चक्र निरूपण (१.१३), ब्रह्मनिर्वाण तन्त्र (३.२६) आदि ग्रन्थों में मूलाधार आदि चक्रों में ध्यान करने का निर्देश मिलता है, जिससे यह माना जा सकता है कि कुण्डलिनी साधनापरक ग्रन्थों में पतञ्जलि स्वीकृत ध्यान का स्वरूप ही स्वीकार किया जाता है, जिसमें किसी स्थल में