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पंचम खण्ड / ५८
अर्चनार्चन
भाग पर टिके हुए हों। ऊपर के दांत नीचे के दांतों का स्पर्श न करते हों। मुख-मण्डल प्रसन्न हो। पूर्व या उत्तर में मुंह हो । प्रमादरहित हो तथा मेरुदंड बिलकुल सीधा रहे इत्यादि।
इसके लिए पर्यंकासन, वीरासन, वज्रासन, पद्मासन, भद्रासन, दंडासन, उत्कटिकासन, गोदोहिकासन तथा कायोत्सर्गादि अनेक प्रासन बताये गये हैं। अगर शरीर निर्बल हो तो उस अवस्था में लेटकर भी ध्यान किया जा सकता है।
ध्यान करने की इच्छा रखने वाले साधक को तीन बातें जाननी आवश्यक हैं(१) ध्याता-ध्यान करने वाले में कैसी योग्यता होनी चाहिए ? (२) ध्येय-जिसका ध्यान करना है, वह वस्तु कैसी है ? तथा (३) ध्यान-ध्यान की सामग्री कैसी है ?
जो साधक प्राण-नाश का अवसर आ जाने पर भी संयमनिष्ठा को न छोड़े, अन्य प्राणियों को प्रात्मवत् देखे, सर्दी-गर्मी और प्रांधी-पानी से भी विचलित न हो, कषायों से रहित
और काम-भोगों से विरक्त रहे, मानापमान में समभाव रखे, प्राणियों पर करुणा तथा मैत्रीभाव रखे, परिषह तथा उपसर्गादि पाने पर भी मेरु की तरह अडिग रहे, वही सच्चा व श्रेष्ठ ध्याता है, साधक है।
ध्येय को ज्ञानी पुरुषों ने चार प्रकार का माना है । ये चारों ध्यान के पालम्बन रूप होते हैं-(१) पिंडस्थ, (२) पदस्थ, (३) रूपस्थ तथा (४) रूपातीत ।
(१) पिंडस्थ-पिण्डस्थ ध्यान पिण्ड से सम्बन्धित है । इसमें पांच धारणाएँ होती हैं(१) पार्थिवी, (२) प्राग्नेयी, (३) मारुति, (४) वारुणी तथा (५) तत्त्वभू ।
पिण्ड अनेक तरह के होते हैं। उनमें चौदह राजू लोक की उपमा नाचते हुए भोपे के रूप में दी है । उस पिण्ड का चिन्तन करना तथा हेय-ज्ञेय-उपादेय का चिन्तन कर, हेय-ज्ञेय को यथायोग्य जानना और छोड़ना, उपादेय जो आध्यात्मिक निज स्वरूप है, उसको ग्राह्य करते हुए समुद्र-मन्थन की तरह लोक-मन्थन का निष्कर्ष प्राध्यात्मिक स्वरूप को अभिव्यक्त करने की दृष्टि से लोकरूप पिण्ड का चिन्तन पिण्डस्थध्यान के अन्तर्गत प्राता है।
(२) पदस्थ-नाभि में सोलह पंखुड़ी के, हृदय में चौबीस पंखुड़ी के और मुख पर पाठ पंखुड़ी के कमल की तरह स्थापना करना और प्रत्येक पंखुड़ी पर पंच परमेष्ठी मंत्र के अक्षरों की स्थापना करके उनका एकाग्नतापूर्वक चिन्तन करना पदस्थध्यान है।
(३) रूपस्थ-सशरीर अरिहन्त भगवान् की शान्तमुद्रा का स्थिरचित्त से ध्यान करना रूपस्थध्यान है।
(४) रूपातीत-रूप रहित निरंजन, निर्मल सिद्ध भगवान का ध्यान करना रूपातीतध्यान है।
___ "उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम् ।'' अर्थात् उत्तम संहनन वाले साधक द्वारा किसी एक विषय में अन्तःकरण की विचार
१. तत्त्वार्थसूत्र, प्र. ९।२७
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