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________________ धर्म-साधना में चेतना-केन्द्रों का महत्त्व | १५१ जगमगा उठती है। सम्यग्दर्शन जैनधर्म के अनुसार मोक्ष-साधना की प्रथम सीढ़ी सम्यग्दर्शन है। यहीं से प्रात्मा कर्मविशुद्धि करती हुई सर्व-विशुद्धि की ओर बढ़ती है और क्रमश: अपना चरम लक्ष्य-मोक्ष प्राप्त कर लेती है। सम्यग्दर्शन प्राप्ति के लिए कर्मग्रन्थों में बताया गया है कि अनादि काल से प्रात्मा के साथ लगी हुई मिथ्यात्व प्रकृति (सम्यक्त्व एवं मिश्र) तथा अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ-इन पांच (अथवा सात) प्रकृतियों (जिन्हें दर्शन-सप्तक कहा गया है ) के उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम हो जाने पर जीव' को सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। भाष्य साहित्य में सम्यक्त्व प्राप्ति के सम्बन्ध में एक रूपक मिलता है। तीन व्यक्ति व्यापारार्थ दूसरे देश को चले । रास्ते में एक वन पड़ता था। जब वे वन में होकर जा रहे थे तो कुछ लुटेरे मिले । एक व्यक्ति तो लुटेरों को दूर से ही देखकर सिर पर पांव रखकर पीछे की ओर भाग निकला, दूसरे ने संघर्ष किया किन्तु पराजित होकर उनके फन्दे में फंस गया। तीसरा दृढ मनोबल वाला था, उसने उन लुटेरों से संघर्ष किया और पराजित करके अपने गन्तव्य स्थल पर पहुंचा। __ शास्त्रकारों ने इस दृष्टान्त में क्रोध आदि कषाय, मिथ्यात्व रूप व्यामोह, प्रमाद आदि का लुटेरा कहा है और उन्हें पराजित करने वाले जीव को सम्यक्त्व लाभ बताया है। यहां यह बात ध्यान रखने की है कि ग्रन्थकारों ने एक शब्द दिया है-मिथ्यात्व की ग्रन्थि । सम्यक्त्व-प्राप्ति के लिए साधक इस मिथ्यात्व-ग्रन्थि का भेदन करता है, तोड़ता है, खोलता है और मिथ्यात्व-प्रन्थि के टूटते ही उसे सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाती है। अब देखना यह है कि कर्मशास्त्रों में बताई गई यह मिथ्यात्व-ग्रन्थि आत्मा में कहां है, अर्थात् आध्यात्मिक दृष्टि से इसका स्वरूप क्या है, साधक किन परिणामों से और किस प्रकार इस ग्रन्थि को तोड़ता है, उस समय चेतना-केन्द्र किस प्रकार उपयोगी बनते हैं तथा मिथ्यात्व-ग्रन्थि टूटने और सम्यक्त्व प्राप्ति होने के उपरान्त साधक की प्रान्तरिक एवं बाह्य प्रवृत्तियों में क्या परिवर्तन होता है ? पहले प्राध्यात्मिक दृष्टि से मिथ्यात्व-ग्रन्थि का स्वरूप समझे । सम्यक्त्व प्राप्त होने से पूर्व सभी संसारी आत्माओं के साथ अनादि काल से यह मिथ्यात्व-ग्रन्थि लगी रहती है। प्राध्यात्मिक भाषा में प्रात्मा की प्राणधारा अधोमुखी (अथवा बहिर्मुखी) रहती है । वह भवाभिनन्दी तथा पूदगलाभिनन्दी बना रहता है। योगशास्त्रों में इसे रूपक की भाषा में कहा है कि सुषुम्ना के निचले सिरे पर मूलाधार • चक्र-ऊर्जाकेन्द्र कुण्डलिनी शक्ति अधोमुख हुई सोई रहती है। अब एक बात और समझे। प्राणों के शरीर में दो केन्द्र हैं-एक है ज्ञान-केन्द्र और दूसरा है काम-केन्द्र । ज्ञान का प्रमुख स्थल है मस्तिष्क और कामकेन्द्र प्रमुख रूप से नाभि के निचले प्रदेश में अवस्थित रहता है, वहीं से अपनी अभिव्यक्ति कराता है। किन्तु इसे आसनस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211206
Book TitleDharm Sadhna me Chetna kendro ka Mahattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Surana
PublisherZ_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf
Publication Year1988
Total Pages18
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size2 MB
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