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________________ पंचम खण्ड | १५० अर्चनार्चन आवेगों संवेगों का नियामक तथा निर्देशक है। जिस स्थान को योगाचार्यों ने ब्रह्मरंध्र कहा है, वह प्राधुनिक शरीरशास्त्र के लघु मस्तिष्क से संदर्भित किया जा सकता है। भारतीय योगियों के अनुसार यही वह चक्र है, जिसके पूर्ण जाग्रत होने पर सर्वज्ञता प्राप्त हो जाती है। प्रतः इसे सर्वसिद्धि अथवा सर्वज्ञता केन्द्र भी किन्हीं किन्हीं प्राचार्यों ने कहा है इस प्रकार चक्रस्थानों अथवा चेतनाकेन्द्रों की अवस्थिति आदि के बारे में सभी एकमत हैं। अब हमें यह देखना है कि इन चेतना-केन्द्रों का आत्मसाधना में-सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र-तप की साधना में कितना महत्त्व है ? यह कितने उपयोगी हो सकते हैं ? साधक किस प्रकार इनका उपयोग करता है ? चेतना-केन्द्रों की साधना, राधा-वेध से भी दुष्कर साधना के क्षेत्र में चरणन्यास करने से पहले चेतना केन्द्रों की प्रकृति को समझ लेना आवश्यक है। इन केन्द्रों को जगाना राधावेध से भी अधिक दुष्कर, श्रम-साध्य और स्थिरतादृढ़ता की अपेक्षा रखता है। धनुर्वेद में राधावेध अत्यन्त उच्चकोटि की साधना मानी गयी है। यह धनुर्धारी के मन की एकाग्रता तथा अचूक निशाना साधने की क्षमता एवं त्वरित निर्णय तथा उसके क्रियान्वयन की परीक्षा है। राधावेध में तो परछाई देखकर ऊपर चक्र में घूमती हुई पार्थिव पुत्तलिका का वेध किया जाता है; किन्तु चेतना केन्द्रों को जगाने की प्रक्रिया में तो प्रौदारिक शरीर में अवस्थित चक्र की तैजस शरीर में पड़ती हुई परछाई (सही शब्दों में ज्ञान (आत्मा) की धारा का सघन चक्राकार प्रवाह) को वेधा जाता है। राधावेध में तो तीर भी भौतिक होता है और उसे भौतिक धनुष पर चढाकर ही लक्ष्यवेध किया जाता है। जबकि चेतनाकेन्द्र-जागति में बाण का काम करती है ऊर्जा अथवा शक्ति और धनुष है स्वयं साधक का भावावेग । भावना रूपी प्रत्यंचा पर प्राणधारा रूपी ऊर्जा का बाण चढ़ाकर चेतनाकेन्द्रों को प्रसुप्ति से जागृत दशा में लाया जाता है। यह साधन कुछ दुष्कर अवश्य हैं, और दुष्कर हैं सिर्फ उन्हीं साधकों के लिए जिनके अन्तस् में बाह्य जगत् की नामना-कामना उपस्थित रहती है, किन्तु जो साधक सच्चे हृदय से आत्म-साधना करना चाहता है, उसके लिए यह दुष्कर नहीं है। साधना के लिए अन्तरंग की निस्पृहता और मन की एकाग्रता तथा काय (प्रासन) की स्थिरता एवं वचन योग की अचपलता तो आवश्यक है ही। चेतना-केन्द्रों के स्वरूप, अवस्थिति, लक्षण आदि के बारे में जानने के बाद अब हम यह जानने का प्रयास करें कि साधक की साधना में यह चेतना-केन्द्र कितने सहायक बनते हैं, इनके जागृत होने पर साधना में किस प्रकार चमक आती है, उसकी चेतनाधारा (प्राणशक्ति की ऊर्जा) का किस प्रकार ऊर्ध्वारोहण होता है और वह कैसे अनुत्तर ज्ञान-दर्शन के प्रकाश से For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.211206
Book TitleDharm Sadhna me Chetna kendro ka Mahattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Surana
PublisherZ_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf
Publication Year1988
Total Pages18
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size2 MB
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