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खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन
तीन वर्ग
इन सारे लक्षणों का निचोड़ यदि निकाला जाये तो मुख्य रूप से इनके तीन वर्ग बनते हैं । पहला वर्ग है, तस्वार्थों/पदार्थों का श्रद्धान, दूसरा - देव, शास्त्र व गुरु तथा धर्म पर श्रद्धान, तथा तीसरा वर्ग - स्व-पर के भेदविज्ञान के साथ शुद्धात्मा की उपलब्धिरूप श्रद्धान ।
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इन लक्षणों में जहाँ पर आप्त, आगम व तत्वों की श्रद्धा को सम्यक्दर्शन बतलाया गया है, वहाँ पर पूर्व के दो वर्गों का सम्मिलित रूप लिया गया है। क्योंकि यह दोनों ही वर्ग, सम्यग्दर्शन के व्यव - हार पक्ष को लेकर किये गये हैं । जहाँ 'तत्त्वरुचि' को सम्यग्दर्शन कहा गया है, वह कथन, उपचारवश किया गया समझना चाहिए। क्योंकि रुचि कहते हैं - 'इच्छा' को, या 'अनुराग' को । जिनका मोह नष्ट हो जाता है, उनमें तो 'रुचि' का अभाव हो जाता है । अतः 'तत्त्वरुचि' या 'अतीन्द्रिय सुख की रुचि ' अथवा 'शुद्धात्मरुचि' को सम्यग्दर्शन मानेंगे, तो ऐसे सम्यग्दृष्टि में 'मोह' की सत्ता माननी पड़ेगी । मोह की उपस्थिति में 'सम्यक्त्व' को कैसे स्वीकार किया जायेगा ? क्योंकि, सम्यक्त्व के अभाव में न तो 'सम्यग्दर्शन' ही हो पाता है, और न ही 'सम्यग्ज्ञान' । इसलिए, जहाँ भी 'रुचि' को सम्यग्दर्शन के लक्षण साथ जोड़ा गया है, वह प्रयोग, उपचारवश माना जाना चाहिए, और 'तत्त्वरुचि' के प्रसंग में उसे 'अशुद्धतर नय' की' अपेक्षा से कहा गया जानना चाहिए ।
पूर्व में जो तीन वर्ग बनाये हैं, उन वर्गों का परस्पर न तो कोई सैद्धान्तिक भेद है, न ही अलगाव । बल्कि, यह भिन्नता, भिन्न-भिन्न स्तरों को लक्ष्य में रखकर, भिन्न-भिन्न दृष्टियों से ही मानी जानी चाहिए । इसी बात को यहाँ विशेष रूप से स्पष्ट किया जा रहा है ।
एक सम्यग्दृष्टि जीव को, उनका जैसा श्रद्धान होता है, वैसा श्रद्धान मिथ्यादृष्टि जीव का कभी नहीं होता। क्योंकि, मिथ्यादृष्टि जीव, अपने पक्ष के मोहवश अर्हन्त देव आदि का श्रद्धान करता है । अर्हन्त देव आदि के यथार्थ स्वरूप की पहचान, चूँकि एक मिथ्यादृष्टि जीव को नहीं होती, अतः उसका अर्हन्तदेव आदि के प्रति जो पक्षमोहवश श्रद्धान होता है, वह यथार्थ श्रद्धान नहीं होता । यथार्थ श्रद्धान तो उसे तभी हो पाएगा, जब वह इन अर्हन्त आदि के यथार्थ स्वरूप की पहचान कर सकेगा । जिनके यथार्थ श्रद्धान होता है, उन्हें अर्हन्तदेव आदि के यथार्थ स्वरूप का भी श्रद्धान होता है । क्योंकि, अर्हन्त देव आदि के यथार्थ स्वरूप की जिसे पहचान है, उसे जीव आदि तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप की पहचान होगी ही । इन दोनों बातों को परस्पर में अविनाभावी जानना चाहिए । इसी वजह से अर्हन्तदेव आदि के श्रद्धान को 'सम्यक्त्व' या 'सम्यग्दर्शन' कहा गया है ।
'तत्त्व श्रद्धान' को सम्यग्दर्शन मानने में भी अर्हन्तदेव आदि के श्रद्धान की बात गर्भित है । तत्त्व समूह में 'मोक्ष तत्त्व' सर्वोत्कृष्ट है । और मोक्ष की प्राप्ति के पूर्व 'अर्हन्त' पद की प्राप्ति अवश्यभावी है । ऐसा एक भी उदाहरण नहीं है, जिससे यह स्पष्ट हो सके, कि बिना अर्हन्त हुए कोई जीवात्मा मोक्ष -लाभ कर सका है । अतः, मोक्ष में श्रद्धान में होने पर, 'अर्हन्त' में श्रद्धान अनिवार्यतः होता है ।
मोक्ष के कारण हैं-संवर और निर्जरा तत्त्व । ये दोनों उन मुनियों के सम्भव होते हैं जो निर्ग्रन्थ हैं, वीतरागी हैं। यानी, जो मुनि, संवर- निर्जरा के धारक होंगे, वास्तव में वे ही सच्चे 'गुरु' माने
१. अथवा तत्त्वरुचिः सम्यक्त्वम् अशुद्धतरनय- समाश्रयणात् ।
1- षट्खंडागम - पुस्तक १, पृष्ठ १५१
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