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धर्म-साधना के तीन आधार : उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जा सकते हैं । इन गुरुजनों पर श्रद्धान होने का अर्थ होता है-संवर निर्जरा तत्त्वों पर श्रद्धान होना । और संवर-निर्जरा तत्त्वों पर श्रद्धान होने का मतलब होता है सच्चे गुरु पर श्रद्धान होना । पूर्व की भाँति, ये दोनों भी, परस्पर अविनाभावी या अन्योन्याश्रित माने जा सकते हैं।
___ इसी प्रकार, राग आदि से रहित भाव को 'अहिंसा' कहते हैं । 'अहिंसा' को ही उपादेय धर्म माना गया है । अतः रागादि से रहित भावरूप धर्म को 'सच्चा धर्म' कहा जा सकता है। इसी पर श्रद्धान करना, सच्चे धर्म का श्रद्धान होगा।
इस प्रकार, 'तत्त्व श्रद्धान' में अर्हन्तदेव आदि का श्रद्धान और 'अर्हन्त देव आदि के श्रद्धान' में तत्त्वश्रद्धान का भाव अन्तर्निहित है।
विनय
विनय से ज्ञान-लाभ, आचार विशुद्धि और सम्यगाराधना की सिद्धि होती है। और, अन्त में मोक्षसुख भी मिलता है । अतः, विनय की भावना अवश्य ही करनी चाहिए । 'विनय' की इस महत्ता को देखते हुए दशवकालिक में इसे धर्म का परममूल' कहा गया है। उत्तराध्ययन के प्रथम अध्ययन में विनय की सविस्तृत व्याख्या है। भगवती, स्थानाङ्ग और औपपातिक में विनय के विविध प्रकार बताये हैं। पर विस्तारभय से हम उन सबकी चर्चा यहाँ कर नहीं रहे हैं। भावपाहुड में भी, विनय के माहात्म्य को स्वीकार करके, साधु मुनि को सलाह देते हुए कहा गया है--'हे मुनि ! पाँच प्रकार की विनय को मन, वचन व काय से पालन करो। क्योंकि, विनय से रहित व्यक्ति, सुविहित मुक्ति को प्राप्त नहीं करते हैं।' इस कथन की पुष्टि वसुनन्दि श्रावकाचार में भी की गई है।
विनय के पाँच प्रकार यह हैं :-दर्शनविनय, ज्ञानविनय, चारित्र-विनय, तपविनय व उपचारविनय । यह पाँचों, मोक्षगति के नायक माने गये हैं। भगवती आराधना और वसुनन्दि श्रावकाचार
१. रागादीणमणुप्पा अहिंसगत्त त्ति भासिदं समये । तेसिं चेदुप्पत्ती हिंसे त जिणेहि णिहिट्ठा ।
-सर्वार्य सिद्धि, ७/२२ पर उद्धृत २. ज्ञानलाभाचारविशुद्धि सम्यगाराधनाद्यर्थ विनयभावनम् । ततश्च निवृत्ति सुखमिति विनयभावनं क्रियते ।
---राजवा तिक, ६/२३/७ ३. विणयं पंचपयारं पाल हि मणवयणकायजोएण । अविणयणरा सुविहियं तत्तो मुत्ति ण पावंति ॥
-भावपाहुड, १०२ ४. वसुनन्दिश्रावकाचार, ३३५ ५. मूलाचार, ३६४ ६. विणओ मोक्खद्दारं विणआदो संज मो तवो णाणं ।
णिगएणाराहिज्जइ आयरिओ सव्वसंघो य॥ कित्ती मेत्ती माणस्स भंजणं गुरुजणे य बहुमाणो । तित्थयराणां आणा गुणाणुमोदो य विणयगुणा ॥
--भगवती आराधना, १२६.१३१ ७. देविंद चक्कहर मंडलीयरायाइजं सुहं लोए। तं सव्वं विणयफलं णिवाणसुहं तहा चेव ।।
-वसनन्ति श्रावकाचार, ३३४
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