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सम्यग्दर्शन
आचार्य कुन्दकुन्द ने 'सम्यग्दर्शन' को धर्म का मूल माना है। क्योंकि इसके बिना 'ज्ञान' ज्ञान नहीं रहता, ज्ञान के बिना चारित्र नहीं पनप पाता, चारित्रहीन को मोक्ष नहीं मिलता, और मोक्ष के अभाव में निर्वाण नहीं प्राप्त होता । मगर, वह 'दर्शन' है क्या ? इस बारे में जैनाचार्यों ने अलग-अलग ढंग से अपने मत प्रकट किये हैं ।
उमास्वाति का कहना है - अपने - अपने स्वभाव में स्थित तत्त्वार्थों का श्रद्धान, 'सम्यग्दर्शनः है । इन्होंने जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष, यह सात तत्त्व माने हैं । आचार्य चंद्र आदि ने भी ये ही सातों तत्त्व बतलाये हैं । उत्तराध्ययन में, इन सातों के साथ पुण्य और पाप को मिलाकर नौ तत्त्व' कहे हैं। जिन आचार्यों ने सात तत्त्व माने हैं, वे पुण्य और पाप को बंध के अन्तर्गत मानते हैं ।
धर्म-साधना के तीन आधार: उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनि
अन्य कुछ आचार्यों ने पदार्थों के विपरीत अभिनिवेश रहित श्रद्धान' को सम्यग्दर्शन बतलाया है, तो कुछ ने पदार्थों के यथावस्थित स्वरूप का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन माना है । सूत्रपाहुड में उक्त तत्वों के प्रति हेय व उपादेय बुद्धि को सम्यग्दर्शन कहा है तो मोक्षपाहुड में तत्त्वरुचि को सम्यग्दर्शन बतलाया गया है।
नियममार में सम्यक्त्व की चर्चा के सम्बन्ध में बतलाया गया है-आप्त, आगम और तत्त्वों की श्रद्धा से सम्यक्त्व' होता है। यानी इन तीनों पर श्रद्धा करना सम्यग्दर्शन है । रत्नकरण्डक श्रावकाचार में इसी कथन को कुछ और स्पष्ट किया गया है-तीन प्रकार की मूढ़ता और आठ प्रकार के मद से रहित होकर, सत्यार्थ देव, शास्त्र और गुरु पर आठों अंगों सहित श्रद्धान करना' सम्यग्दर्शन है ।
१. नादंसणिस्स नाणं नाणेण विना न हुति चरणगुणा । अगुणिस्स नत्थि मोक्खो नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं ॥
२. तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । जीवाजीवास्रव बंध-संवर- निर्जरा मोक्षास्तत्त्वम् ।
३. जीवाजीवा य बंधो य पुण्णं पावाऽसवो तहा । संवरो निज्जरा मोक्खो संते ए तहिया नव ॥
४. ( क ) पञ्चास्तिकाय -- तात्पर्याख्यावृत्ति, १०७ (ख) पुरुषार्थसिद्ध युपाय, २२
(ग) समयसार, १५५
५. सुत्तत्थं जिणभणियं जीवाजीवादि बहुविहं अत्थं । यायं च तहा जो जाणइ सो हु सद्दिट्ठी |
६. तच्चरुई सम्मत्तं ।
७. अत्तागमतच्चाणं सदहणादो हवेइ सम्मत्तं । ८. श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागमतपोभृताम् । त्रिमूढापोढमष्टाङ्गं सम्यग्दर्शनमस्मयम् ॥
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- उत्तराध्ययन, २८ / ३०
- तत्त्वार्थ सूत्र, १/२, ४
- उत्तराध्ययन, २८ / १४
- सूत्रपाहुड, ५
--मोक्षपाहुड, ३८ - नियमसार, ५
- रत्नकरण्डक श्रावकाचार, ४
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