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खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन
औषधि आदि पदार्थ देकर उनकी सेवा करता है । साथ ही, अपनी पूरी सामर्थ्य के अनुसार मुनियों के उपसर्ग आदि को दूर करने में प्रवृत्त होता है । कभी कोई मुनि उसे भटका हुआ मिलता है, तो वह उन्हें सही रास्ता बतला कर, अपने भाव को साकार करता है । सभाओं, आयोजनों आदि सामूहिक गोष्ठियों में वह उन मुनिजनों के गुणों की प्रशंसा करता है, और चाहता है कि साधुओं / मुनियों का सत्संग उसे हमेशा मिलता रहे ।
आशय यह है कि साधु / मुनि के गुणों की प्रशंसा करना, अनुमोदन करना, और अनुसरण करना आदि समस्त भाव, 'धर्मानुकम्पा' के माने गये हैं ।
गृहस्थ व्यक्तियों पर जो दया की जाती है, उसे 'मिश्रानुकम्पा' कहते हैं । क्योंकि गृहस्थों में अधिकांशतः ऐसे होते हैं, जो जीवों पर दया तो करते हैं किन्तु दया के समग्र स्वरूप को वे नहीं जानते । इनके अलावा, उन लोगों पर भी, जो जिन सूत्र से बाहर हैं, पाखण्डी गुरु की अर्चना / उपासना करते हैं, इन सब पर कृपाभाव रखना 'मिश्रानुकम्पा मानी गई है । जो व्यक्ति, गृहस्थधर्म का पालन कर रहे हैं किन्तु अन्य धर्मो का पालन करने वालों के प्रति दया / अनुकम्पा की भावनाएँ रखते हैं, ऐसे गृहस्थों पर अनुकम्पा का भाव भी 'मिश्रानुकम्पा ' है ।
'मृदुता ' चेतना का मौलिक गुण है। वह जिस तरह एक सम्यग्दृष्टि में स्वभावतः मौजूद रहती है, उसी तरह मिथ्यादृष्टि में भी उसको सहजता से देखा जा सकता है । यह दोनों ही प्रकार के व्यक्ति समस्त प्राणियों पर दया / अनुकम्पा भी करते रहते हैं । इन दोनों की यह 'अनुकम्पा', चूंकि हर प्राणी के प्रति समान व्यवहार के साथ होती है । इसलिए, इन दोनों की अनुकम्पा को 'सर्वानुकम्पा' के अन्तर्गत माना जाता है ।
निष्कर्ष रूप में यह कह सकते हैं कि जब 'अनुकम्पा' का विषयभूत जीव / प्राणी धर्म-क्ष ेत्र से सम्बन्धित होगा, तब उस धार्मिक व्यक्ति / जीव के प्रति होने वाला करुणाभाव, 'धर्मानुकम्पा' कहा जाएगा । इसी तरह, अनुकम्पा का विषय जब कोई ऐसा प्राणी हो जो 'संयतासंयत' के दर्जे में आता हो, तो उसके प्रति होने वाला दया / करुणा भाव 'मिश्रानुकम्पा' होगा । और जिस अनुकम्पा का विषय हर प्राणी / जीव बन सकता हो, यानी समस्त जीवों को अपना विषय बनाने वाली करुणा / अनुकम्पा को 'सर्वानुकम्पा' कहा जाएगा ।
'अनुकम्पा' के इस स्वरूप विश्लेषण साथ जब 'दया' या 'करुणा' के स्वरूप को मिलाकर विचार किया जाता है, तब यह निष्कर्ष सामने आता है कि, जिसे हम 'दया' कहते हैं, वह चाहे तो 'करुणा' के नाम से पुकारी जाये, अथवा 'अनुकम्पा' के नाम से, इनमें कोई मौलिक भेद नहीं है । क्योंकि, इन तीनों में 'नाम' भर की भिन्नता, भले ही दिखलाई पड़ रही हो, वस्तुतः यह तीनों ही शब्द, आत्मा के जिस विशेष भाव को व्यक्त करते हैं वह भाव हर जीवात्मा में, उसके अन्य मौलिक गुणों के साथ सहज ही मौजूद रहता है । और, जब भी उसे अनुकूल वातावरण मिलता है, द्रवित हो उठता है ।
१ विशेष जानकारी के लिए देखें - भगवती आराधना की विजयोदया टीका - १८३४ ।
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