________________ 138 काजी अजुम सैफी कि व्यवहारोपयोगी या हानि-लाभोपयोगी व्यावहारिक सामग्री एवं रसात्मक परिणति प्रदान करने वाली रसोचित सामग्री की प्रकृति में कोई अन्तर नहीं है। इसलिए उनका मत भी नितान्त उपेक्ष्य है, जो रोज़मर्रा के सामान्य लौकिक अनुभवों से रसात्मक अनुभव का अन्तर स्वीकार नहीं करते। लौकिक घटनाओं एवं साधन-सामग्री पर व्यक्ति का नियन्त्रण नहीं होता। उनको यथावत् रूप में व्यक्ति को स्वीकार करना ही पड़ता है। इसके विपरीत नाट्य-सामग्री स्वाधीन होती है-निर्माता कवि की दृष्टि से और ग्रहीता सहृदय की दृष्टि से भी। कहा भी गया है कि असीमित काव्य-संसार का प्रजापति कवि ही होता है और समस्त विश्व इसकी इच्छानुरूप ही परिवर्तित होता है / अतः लोक और काव्य की प्रकृति की भिन्नता के आधार पर उससे उद्भुत रस की प्रकृति में भी अन्तर स्वीकार करना पड़ेगा। इसलिए रामचन्द्र-गुणचन्द्र की लोकगत और काव्यगत रस की अवधारणा को समान धरातल पर स्वीकार नहीं किया जा सकता | वास्तव में काव्यिक रस की उदात्त अनुभूति के समक्ष रखना उसकी उदात्तता और गरिमा से च्युत करना है / एक तथ्य यह भी आलोच्य है कि यद्यपि रामचन्द्र-गुणचन्द्र यह स्वीकार करते हैं कि लोकगत कार्य, हेतु एवं सहचारी को ही काव्य में क्रमशः अनुभाव, विभाव और व्यभिचारी कहा जाता है तथापि लोकगत रस के निरूपण के अवसर पर भी उन्होंने 'विभाव' आदि शब्दों का ही प्रयोग किया है, हेतु आदि का नहीं / उत्कर्ष प्राप्त चित्तवृत्ति रूप स्थायीभाव को ही रस स्वीकार करने पर भी स्वयं उनके द्वारा काव्यगत रस को अप्रत्यक्ष एवं परगत तथा लोकगत रस को प्रत्यक्ष एवं स्वगत कहना विरोधाभासी वक्तव्य है / सम्भवतः रामचन्द्र-गुणचन्द्र लौकिक रस को ही मूल रस स्वीकार करते हैं और काव्य में लोकगत कारण आदि की ही शाब्दिक विभाव आदि के रूप में उपस्थिति के आधार पर मूलतः अनुकार्य राम आदि की दृष्टि से इनकी परोक्षता और परगतता का कथन करते हैं। वस्तुतः चित्तवृत्त्यात्मक स्थायी भाव के सामाजिकस्थ होने और विभाव आदि के साधारणीकृत होने में इनके मूल अनुकार्य से असम्बद्ध हो जाने के कारण सहृदय की रसानुभूति को प्रत्यक्ष और स्वगत स्वीकार किया जाना चाहिए, परोक्ष एवं परगत नहीं / अतः रामचन्द्र-गुणचन्द्र की एतद् विषयक मान्यता भी पूर्णतः अस्वीकार्य है। रामचन्द्र-गुणचन्द्र रस की लोकोत्तरता का तो कथन करते हैं; परन्तु इस सम्बन्ध में दिया गया उनका तर्क विचित्र है। काव्यगत विभावों के अवास्तविक होने से सामाजिकस्थ अनुभावों और व्यभिचारियों की अस्पष्टता को इस लोकोत्तरता का आधार स्वीकार नहीं किया जा सकता है। एक तथ्य यह भी ध्यातव्य है कि रामचन्द्र-गुणचन्द्र यहाँ रस को लोकोत्तर कहते हैं, अलौकिक नहीं। रस को सुख-दुःखात्मक रूप उभयात्मक प्रकृति के उद्घोषक होने के कारण वे अभिनवगुप्त आदि समस्त रस के अलौकिकत्व का समर्थन करने की स्थिति में नहीं हैं / अतः उनके द्वारा मान्य रस की 1. रस-विमर्श:१०८७ / 2. अपारे काव्य संसारे कविरेव प्रजापतिः / यथास्मै रोचते विश्वं तथैव परिवर्तते // ध्वन्या ( उत्त० ) पृ० 1229 / 3. विवृत्ति, ना० द० पृ० 142 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org