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________________ दशरूपक और नाट्यदर्पण में रस-स्वरूप एवं निष्पत्ति : एक तुलनात्मक विवेचन 137 क्योंकि वाच्यार्थ का सम्बन्ध काव्य से है और काव्य में रस की निष्पत्ति नहीं होती। रस-रसना की निष्पत्ति तो सामाजिक में होती है। ___डॉ० रामलखन शुक्ल धनञ्जय द्वारा काव्यास्वयित सामाजिक के परिप्रेक्ष्य में मिट्टी आदि से निर्मित हाथी आदि क्रीडनक के साथ क्रीड़ारत तथा फलस्वरूप अपने उत्साह का हो आस्वादन करने वाले बालक के उदाहरण की आलोचना करते हैं और इस पर शङ्कक के चित्र-तुरंग-न्याय का प्रभाव स्वीकार करते हैं। इस सम्बन्ध में धनञ्जय की आलोचना करने से पूर्व हमको यह स्मरण रखना चाहिए कि इससे पूर्व पक्ति में ही इसके हेतुभूत विभाव आदि के निर्विशेष स्वरूप की काव्य द्वारा प्रस्तुति का धनञ्जय कथन कर चुके हैं। अतः इस समय नायक आदि के सामान्य रूप के साथ सामाजिक के तन्मय हो जाने की अवस्था है। धनञ्जय इस उदाहरण के माध्यम से दो तथ्यों को स्पष्ट करना चाहते हैं। प्रथम, विभाव आदि के अवास्तविक होने पर भी काव्य द्वारा उपस्थापित उसके सामान्य स्वरूप के साथ सहृदय की तन्मयता और स्वस्थ आनन्द का ही उसके द्वारा आस्वादन | बालक जब कृत्रिम क्रीडनकों के साथ खेलता है, तब अबोधतावश वह उनको न तो वास्तविक हाथी-घोड़ा समझता है और न ही कृत्रिम / इन दोनों ही अवस्थाओं से मुक्त होकर वह उसके साथ रागात्मक सम्बन्ध स्थापित कर लेता है। क्रीड़ा के समय उसको अपने ही उत्साह आदि की अनुभूति होती है, इसमें तो कोई सन्देह ही नहीं है / धनञ्जय सहृदय के रसास्वाद को क्रीडारत बालक के सदृश नहीं कह रहे हैं, अपितु उपमा मात्र दे रहे हैं। सम्भवतः डॉ० शुक्ल को इसमें इसलिए भी अनौचित्य प्रतीत हुआ कि वह बालक के स्वोत्साहास्वादन को प्रौढ़ सामाजिक की दृष्टि से देखते हैं। वस्तुतः उसको भी उसी परिप्रेक्ष्य में अबोध बाल-दृष्टि से देखें तो यह अनौचित्य अनुचित ही प्रतीत होगा। डॉ० सुलेखचन्द्र शर्मा भी धनञ्जय द्वारा प्रदत्त इस उदाहरण की महत्ता को स्वीकार करते हैं। उनके अनुसार यह सहृदय के अनुभव-संसार तथा काव्य-परिवेश के अन्तः सम्बन्ध को क्रीडापरक अवधारणा के आधार पर विश्लेषित करती है। यद्यपि धनञ्जय ने क्रीडावृत्ति में किसी दार्शनिक अथवा मनोवैज्ञानिक सन्दर्भ को अपनी अवधारणा के मूल में स्थापित नहीं किया है, किन्तु अनुकार्य के काव्योपहित स्वरूप के साथ प्रमाता के अन्तःसम्बन्ध की संकल्पना का एक विशिष्ट धरातल इस व्याख्या से उद्घाटित हुआ है। अब रामचन्द्र-गुणचन्द्र के मन्तव्य की ओर आलोचनात्मक दृष्टिपात करते हैं / सर्वप्रथम उनकी लौकिक प्रेम आदि की भी रस-रूप में स्वीकृति से सम्बद्ध अवधारणा का अवलोकन करें। वस्तुतः सुदीर्घ नाट्यशास्त्र परम्परा में किसी भी आचार्य द्वारा लोकगत रस की सत्ता-स्वीकृति का आग्रह नहीं किया गया / आपवादिक रूप में भट्टनायक का उल्लेख अवश्य किया जा सकता है। तथ्यात्मक दृष्टिकोण से रामचन्द्र-गुणचन्द्र की इस मान्यता का समर्थन उचित प्रतीत नहीं होता है। लोक और नाट्य की प्रकृति सर्वथा भिन्न होती है। इस सम्बन्ध में डॉ. राममूर्ति त्रिपाठी को उद्धृत करना अवसरानुरूप होगा। उनका कथन है कि मेरा एकमत्य उनसे बिल्कुल नहीं है जो यह मानते हैं 1. साधारणीकरण : एक शास्त्रीय अध्ययन पृ० 108 / 2. पूर्वोक्त पृ० 109-110 / 3. अभिनवोत्तर संस्कृत-काव्य-शास्त्र में साधारणीकरण-विमर्श 50 42 / 4. पूर्वोक्त पृ० 47 / 18 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211153
Book TitleDashrupak aur Natyadarpan me Ras Swarup evam Nishpatti Ek Tulanatmaka Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKaji Anjum Saifi
PublisherUSA Federation of JAINA
Publication Year1987
Total Pages2
LanguageHindi
ClassificationArticle & Kavya
File Size2 MB
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