SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 13
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दशरूपक और नाट्य दर्पण में रस-स्वरूप एवं निष्पत्ति : एक तुलनात्मक विवेचन 135 आचार्य मम्मट ने तात्पर्यवाद का खण्डन करने के लिए उसकी मूलभूत मान्यता 'यावत्कार्य प्रसारिता' की कल्पना पर ही प्रहार किया है, किन्तु उनका यह कथन कुमारिल द्वारा प्रतिपादित तात्पर्यवाद को लेकर ही प्रेरित है / धनञ्जय एवं धनिक ने तात्पर्य की मीमांसा शास्त्र निबद्ध कल्पना को उदार बनाकर इतना विस्तृत कर दिया है कि उसमें व्यञ्जनावादियों के निखिल प्रपञ्च का अन्तर्भाव हो जाता है तथा व्यञ्जना और तात्पर्य एक ही हो जाते हैं। परन्तु डॉ० नरेशचन्द्र पाठक के उपर्युक्त विचारों के सन्दर्भ में भी धनञ्जय के इस मन्तव्य को पूर्णतः स्वीकार नहीं किया जा सकता है। उनकी दृष्टि में वाच्यार्थ पदार्थ स्थानीय और व्यङ्ग्यार्थ वाक्यार्थ स्थानीय है। वास्तव में पदार्थ-वाच्यार्थ और वाच्यार्थ-व्यङ्ग्यार्थ की प्रकृति परस्पर नितान्त भिन्न है। वाच्यार्थ व्यङ्ग्यार्थ में पदार्थ-वाच्यार्थ-न्याय घटित नहीं होता है / तात्पर्य यह है कि पदार्थ-वाक्यार्थ में घटतदपादानकारण-न्याय होता है अर्थात जिस प्रकार घट के ज्ञान के समय कपाल-द्वय रूप उसके उपादन कारण की पृथक्-पृथक् प्रतीति नहीं होती है, उसी प्रकार वाक्यार्थ-बोध के समय परस्पर अनन्वित पदार्थ-बोध भी नहीं होता है; क्योंकि वाक्यार्थ-बोध के लिए पदार्थों की संयुक्त प्रतीति आवश्यक है, विपुल प्रतीति नहीं / वाच्यार्थ और व्यङग्यार्थ के सम्बन्ध में यह न्याय घटित नहीं होता है, क्योंकि व्यङग्यार्थ को प्रतीति के साथ-साथ वाच्यार्थ भी अवभासित होता है, दोनों की समकालिक सत्ता परस्पर विरोधी नहीं है। व्यङ्ग्यार्थ की प्रतिपत्ति के लिए वाच्यार्थ की प्रतीति की साधनरूपता को आचार्य आनन्दवर्धन ने भी स्वीकार किया है / अब यदि विभाव और रस के प्रसङ्ग में इस वस्तुस्थिति का अवलोकन करें तो स्वयं धनञ्जय का मत ही उनके विपरीत दृष्टिगत होता है; क्योंकि रस की अनुभूति के समय विभाव आदि की भी प्रतीति होती रहती है। इनके क्रमशः पदार्थ और वाक्यार्थ-स्थानीय होने के कारण दोनों की एक साथ होने वाली अनुभूति असङ्गत है। अतः रस को वाक्यार्थ-स्थापनीय स्वीकार नहीं किया जा सकता / रस वाक्यार्थ से भिन्न व्यङ्ग्यार्थ ही है और वह तात्पर्यशक्ति का विषय नहीं है / उसके लिए व्यञ्जनावृत्ति की स्वीकृति अनिवार्य है। भट्टनायक की आलोचना के प्रसङ्ग में आचार्य अभिनवगुप्त उनके भावकत्व व्यापार को व्यञ्जना से अभिन्न सिद्ध कर देते हैं। उनकी आलोचना को यथावत् धनञ्जय पर भी लागू किया जा सकता है। अभिनवगुप्त के अनुसार भावकत्व व्यापार का कोई पृथक् हो जाता है / 'भावक' शब्द स्वयं 'उत्पन्न होना' अर्थवाली 'भू' धातु से निष्पन्न है। अतः काव्य को 1. रस-सिद्धान्त : इतिहास और मूल्याङ्कन पृ० 181 / 2. न च पदार्थवाक्यार्थन्यायोवाच्य[ङ्ग्योः / ध्वन्या० ( आ० ) पृ० 1039 / 3. अर्थकत्वादेकं वाक्यं साकांक्षं चेद्विभागे स्यात् / 46 / 2 / 2 जैमिनीसूत्र / ध्वनि-सिद्धान्त : विरोधी सम्प्रदाय-उनकी मान्यताएँ, पृ० 306 से उद्धृत / 4. यथा पदार्थ द्वारेण वाक्यार्थ : संप्रतीयते / वाच्यार्थ पूर्विका तद्वत्प्रतिपत्तस्य वस्तुनः // 1 / 10 ध्वन्या० . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211153
Book TitleDashrupak aur Natyadarpan me Ras Swarup evam Nishpatti Ek Tulanatmaka Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKaji Anjum Saifi
PublisherUSA Federation of JAINA
Publication Year1987
Total Pages2
LanguageHindi
ClassificationArticle & Kavya
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy